आजादी की चाहत
मेरा दर्द मुझसे दूर क्यों नहीं होता,
मैं उससे दूर होता हूँ, वह मुझसे दूर क्यों नहीं होता,
जीवन को जैसे नासूर कर दिया है जीवन ने,
मैं मरा हुआ हूँ, मैं जिंदा क्यों नहीं होता,
मेरी आवाज मेरे गले में अटक सी गयी है,
मैं चीखता हूँ पर कोई सुन क्यों नहीं पाता,
लिख लिखकर उँगलियों से हड्डियाँ बाहर निकल आयी है मेरी,
फिर भी कोई मेरे जज़्बात समझ क्यों नहीं पाता,
दो हाथ दो पैर पाकर भी अपाहिज सा हो गया हूँ मैं,
मेरे अंदर रहने वाले तू मुझसे निकल क्यों नहीं जाता,
मेरा जिस्म मेरी आत्मा को खाए जा रहा है,
परमात्मा इतनी सी भी बात तू समझ क्यों नहीं पाता,
ये भी क्या खींचातान है जिंदगी और मौत की बूंद बूंद हर दिन मर रहा हूँ मैं,
एक दिन पूरा का पूरा मर क्यों नहीं जाता….
prAstya.. (प्रशांत सोलंकी)