आज़ के पिता
आज़ के पिता
यह कहानी बदलाव की है
पितृ प्रधान समाज की है
कल जहां पिता पुत्र को चाहते थे, मांगते थे,
बेटियों के अस्तित्व को नकारते थे
आज़ वही बेटियों के जन्म से फुले नहीं समाते हैं
बेटा होगा या बेटी होगी यह
बात सोचकर नहीं घबराते हैं
संतान के जन्म से पूर्व ही अब
बेटा बेटी दोनों के नाम ढूंढ लेते हैं
बेटा होगा तो अंश नाम रखूंगा
बेटी होगी तो शक्ती का नाम दूंगा
आज़ के पिताओं में ममत्व भी समाया है
बेटी के रोने मात्र से अब अश्रु भर आते हैं
लेकिन चाहकर भी वो रो नहीं पाते हैं
अपनी संतान के लिए पूरी दुनियां से अकेले लड़ जाते हैं
आज़ के पिता स्त्री का सम्मान करते हैं
माहवारी के दर्द को समझते हैं
इसीलिए आराम करने को कहते हैं
अब वो पिता नहीं रहे जहां उनकी पत्नी का
मां बनने के बाद भविष्य खराब हो जाता था
अब वो स्वयं आगे बढ़ाने को तत्पर रहते हैं
आज़ के पिता को अब समाज का भय नहीं
वो ख़ुद समाज बनाते हैं बच्चों को पढ़ाते हैं
आज़ के पिता अधिक मासूम हो गए हैं
अधिक संवेदन शील हो गए हैं
अब वो संतानों पर हाथ नहीं उठाते हैं
अब हर बात पर मित्र की भांति समझाते हैं
आज़ के पिता कोई भी कार्य कर लेंगे
लेकिन बच्चों पर आंच नहीं आनें देंगे
कितने मासूम हो गए हैं ये
पहले से अधिक समझदार हो गए हैं ये
आज़ के पिता बदल गए हैं
भेदभाव भूल गए हैं
बेटा हो या बेटी दोनों को एक समझ रहे हैं
आज़ के पिता घर जल्दी आते हैं
बच्चों के साथ खेलने जाते हैं
कभी कभी भोजन अपने हाथों से बनाते हैं
हां आज़ के पिता बदल गए हैं
आज़ के पिता को दर्द होने लगा है
भावनाएं जागने लगी हैं
ममत्व समाने लगा है
प्रेम करते हैं लेकिन हाथ नहीं उठाते हैं
_ सोनम पुनीत दुबे