“आज़ाद परिंदा”
आज़ाद परिंदा हूँ मैं,
मुझे न बाँधों,
इन दर – दीवारों में,
सोने के पिंजरे में,
दम मेरा घुट रहा,
कटक निम्बोली ही अच्छी है,
तुम्हारें सत – पकवानों से,
नीम टहनी का झूला अच्छा है,
तुम्हारें अनार के दानों से,
बहुमंजिला ईमारतों ने,
इंसा को क़ैदी कर दिया,
मुर्गा जाली लगा,
कमरों में बंद हुआ,
परिंदे आज़ाद घूम रहें,
इंसा पिंजरे में बंद हुआ,
रहा – सहा कोरोना के कहर ने,
इंसा को क़ैदी कर दिया,
आज़ाद परिंदे की तरह फिरता था,
चंद कमरों में बंद हुआ,
मास्क लगा, सैनिटाईज़र ले,
इंसा – इंसा से डर रहा,
चंद कदम चलने पे,
वो सिहर रहा,
चंद दिनों में,
उड़ना तो दूर,
फड़फड़ाना भी भूल जायेंगे,
अँधेरे और आर्थिक मंदी,
इंसा को निग़ल जायेंगे,
हवा को कौन बाँध सका,
आज़ाद परिंदे कैसे बँध पायेंगे,
बग़ावत कर लेके पिंजरा,
एक दिन आसमां में उड़ जायेंगे,
कुदरत से खिलवाड़ किया,
उसका हर्ज़ाना भुगत रहें,
आज़ाद परिंदे थे कभी,
अब “शकुन” पिंजरे में बंद हुऐ।