आज़ादी की जंग में यूं कूदा पंजाब
गुलामी की जंजीरों में जकड़े हिन्दुस्तान को आजाद कराने में अपने प्राणों को संकट में डालकर लड़ने वाले रणबांकुरों में एक तरफ जहां पं. चन्द्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खान, गणेश शंकर विद्यार्थी, गेंदालाल दीक्षित, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, सूर्यसेन, सुभाष चन्द्र बोस, तिलक, विपिन चन्द्र पाल, खुदीराम बोस, रानी लक्ष्मीबाई, मंगल पाण्डेय, बेगम हसरत महल आदि का नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में अंकित है, वही पंजाब की माटी ने भी ऐसे एक नहीं अनेक सपूतों को जन्म दिया है जिन्होंने अंग्रेजों के साम्राज्य को ढाने में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया।
देखा जाय तो अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार उठाने वालों में सिखों का नाम ही सबसे पहले आता है। भले ही सिखों के आंदोलन धार्मिक रंग लिये होते थे, किन्तु इन्हीं आयोजनों से अंग्रेजों की नींद हराम होती थी। 13 अप्रैल 1919 बैसाखी के दिन गुरू गोविंद सिंह के अमृतपान की स्मृति से जुड़ा पवित्र दिन आजादी के इतिहास में ऐसा ही धार्मिक उत्सव था। उस दिन जलियांवाला बाग में मनाये गये उत्सव के समय अंग्रेजों की गोलियों से 309 देशभक्तों को सदा-सदा के लिये विदा कर दिया। जलियांवाला कांड के शहीदों में सर्वाधिक सिख ही थे।
उस समय ऐसा कोई राष्ट्रीय आंदोलन नहीं था जिसमें सिखों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा न लिया हो। स्वदेशी, खिलाफत, बंग-भंग, भारत छोडो आंदोलनों के दौरान सिखों ने अपने प्राण संकट में डाले, जेलों में सड़े, तरह-तरह की यातनाएं झेलीं।
आजादी की लडाई में सिखों का योगदान सन् 1863 से शुरू होता है। सिखों ने भाई रामसिंह के नेतृत्व में ‘कूका’ आंदोलन प्रारम्भ किया। ‘कूका’ सम्प्रदाय के लोग स्वदेशी के पक्षधर थे। यह एक अर्धसैनिक संगठन था जिसमें अस्त्र-शस्त्र चलाने की बाकायदा ट्रेनिंग दी जाती थी।
ये लोग खादी पहनते और सादा जीवन व्यतीत करते थे। अंग्रेजी संस्कृति के कट्टरविरोधी इन ‘कूका’ सम्प्रदाय के लोगों ने जब अंग्रेजों की नीतियों का विरोध किया तो इनकी भिडंत गोरों की फौज से हो गयी। अंग्रेजों ने 66 कूकों को लुधियाना और 12 को मालेर कोटला में तोपों से बांधकर उड़ा दिया। इनके नेता रामसिंह को गिरफ्तार कर वर्मा भेज दिया | जहां वे अपनी मातृभूमि के लिए तड़पते हुए 1895 में स्वर्ग सिधार गये।
‘पंजाब कालोनाइजेशन एक्ट- 1907’ के विरुद्ध सिखों ने जिस प्रकार प्रर्दशन किया, वह भी इतिहास में एक मिसाल है। इस आंदोलन के दौरान ही बांकेदयाल नामक क्रांतिकारी ने प्रसिद्ध पंजाबी गीत ‘पगड़ी संभाल जट्टा, पगड़ी संभाल ओये’ लिखा था। इस गीत को सरदार अजीत सिंह, लाला लाजपतराय, स्वामी श्रद्धानंद और बाद में सरदार भगत सिंह की टोली बड़े जोश भरे अंदाज में गाती थी। पंजाब कालोनाइजेशन एक्ट- 1907 के विरुद्ध आंदोलन छेड़ने वाले शीर्ष नेता थे सरदार अजीत सिंह और लाला लाजपतराय, जिन्हें सरकार ने गिरफ्रतार कर माडले जेल में लम्बे समय तक रखा।
‘जलियांवाला बाग’ के क्रूर हत्यारों के अफसर और ‘साइमन कमीशन’ का विरोध करते समय लाठीचार्ज का आदेश देकर लाला लाजपतराय की मौत का कारण बने सांडर्स से बदला लेने वाले ऊधम सिंह और भगत सिंह का नाम भी स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज है।
लाला हरदयाल की प्रेरणा से सोहन सिंह भकना ने अंग्रेजों की सत्ता को नेस्तनाबूत करने के लिए ‘गदर पार्टी’ का गठन किया। गदर पार्टी के पंजाबी रणबांकुरे करतार सिंह, बलवंत सिंह, भाई भाग सिंह, भाई वतन सिंह, लाला हरदयाल, बाबा सोहन सिंह, बाबा केसर सिंह, बाबा पृथ्वी सिंह, बाबा करम सिंह, बाबा बसाखा सिंह, भाई संतोख सिंह, दलीप सिंह, मेवा सिंह जैसे अनेक सिख जाबांजों ने अमेरिका में रहते हुये भारत माता को आजाद कराने के लिये अंग्रेजों के विरुद्ध अलख जगा कर अपनी जान की बाजी लगाई। उन दिनों गदर पार्टी अमेरिका के अलावा शंघाई, हांगकांग, फिलीपींस तक फैली हुयी थी। गदर पार्टी सशस्त्र क्रांति में विश्वास रखती थी। शुरू में इसका नाम ‘हिन्दी एसोशिएसन’ रखा गया। बाद में यह गदर पार्टी में तब्दील हो गयी। इस पार्टी ने अपने संघ का दफ्तर ‘युगांतर आश्रम’ के नाम से खोलकर ‘गदर’ नामक अखबार निकालने के लिए ‘गदर प्रैस’ की स्थापना की । ‘गदर’ अखबार ने पूरी दुनिया में अत्याचार, शोषण, साम्राज्यवाद के विरुद्ध गदर मचा दिया। इस पार्टी के अधिकांश जांबाज या तो गोलियों से भून दिये गये या फांसी पर लटका दिये गये।
गदर पार्टी से गोरी सरकार को कितना खतरा बन चुका था, इस बारे में तत्कालीन पंजाब के गवर्नर माइकल ओडायर लिखते हैं- ‘‘ हिन्दुस्तान में केवल तेरह हजार गोरी फौज थी जिसकी नुमाइश सारे हिन्दुस्तान में करके सरकार के रौब को कायम करने की चेष्टा की जा रही थी। ये भी बूढ़े थे। यदि ऐसी अवस्था में सैनफ्रैन्सिको से चलने वाले ‘गदर पार्टी के सिपाहियों की आवाज मुल्क तक पहुंच जाती तो निश्चत है कि हिन्दुस्तान अंग्रेजों के हाथ से निकल जाता। ’’
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