आजकल
आजकल
आजकल,कल-कल नहीं बहता मन का झरना,
आजकल मन उलझनों का एक पुलिंदा सा है।
नींद भी नहीं आती
और ख्वाब भी नहीं आते,
ना जाने कैसे-कैसे
ख्याली पुलाव से ख़याल हैं आते।
कभी रिश्तों की खींचातानी है सताती
तो कभी अज़ीज़ों का गम गुनगुनाता है,
कभी रोज़ मर्रा के काम नाक में दम करते हैं
तो कभी खुदपर से ऐतबार उठता जाता है।
आजकल,कल आज,आज कल,
घुंघरू हँसी के बेताल हैं और
अश्कों के सुर पक्के लगते हैं,
खिलखिलाता है सांसो का बगीचा
दिल के आम ना जाने क्यों कच्चे लगते हैं।
ये वक़्त है,ये वक़्त भी गुज़र जायेगा,
जल्द ही देखना तुम चाँद बरसेगा आसमान से
और ईद का पैगाम लेकर आएगा,
मैं उस चाँद के इंतेज़ार में हूँ!
सोनल निर्मल नमिता