आचार्य शुक्ल के उच्च काव्य-लक्षण
आचार्य रामचंद शुक्ल अपने निबंध ‘कविता क्या है’ में कविता को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि-‘‘तथ्य चाहे नर-क्षेत्र के हों, चाहे अधिक व्यापक क्षेत्र के हों, कुछ प्रत्यक्ष होते हैं और कुछ गूढ़। जो तथ्य हमारे किसी भाव को उत्पन्न करे, उसे उस भाव का आलम्बन कहना चाहिए। ऐसे रसात्मक तथ्य आरम्भ में ज्ञानेन्द्रियाँ उपस्थित करती हैं। फिर ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त सामग्री से भावना या कल्पना उनकी योजना करती है, अतः कहा जा सकता है कि ज्ञान ही भावों में संचार के लिये मार्ग खोलता है। विचारों की क्रिया से, वैज्ञानिक विवेचन और अनुसंधान द्वारा उद्घाटित परिस्थितियों और तथ्यों के मर्मस्पर्शी पक्ष का मूर्त्त और सजीव चित्रण भी-उसका इस रूप में प्रत्यक्षीकरण भी कि वह हमारे किसी भाव का आलम्बन हो सके-कवियों का काम और उच्च काव्य का लक्षण होगा।’’
आचार्य शुक्ल के कविता के बारे में व्यक्त किये गये इन विचारों से कविता जिन शर्तों के साथ कविता कहलाती है, वे इस प्रकार हैं-
1. हर प्रकार के क्षेत्र के गूढ़ और प्रत्यक्ष तथ्यों को जब हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ भावना या कल्पना की योजना के द्वारा रसात्मकता की ओर ले जाती है, तब कविता का जन्म होता है।
2. हर प्रकार के रसात्मक तथ्यों को हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ उपस्थित करती हैं। अर्थात् ज्ञान-प्रसार के भीतर ही भाव-प्रसार होता है। ज्ञान ही भावों में संचार के लिये मार्ग खोलता है।
3. श्रेष्ठ काव्य के लिये आवश्यक है कि कवि अपनी वैचारिक प्रक्रिया द्वारा, वैज्ञानिक विवेचन और अनुसंधान कर परिस्थितियों और तथ्यों का मूर्त्त और सजीव चित्रण इस प्रकार करे कि वह सामाजिकों के किसी भाव का आलम्बन बन सके।
जो रसवादी काव्य को भरतमुनि के रससूत्र -‘विभावानुभाव व्यभिचारे संयोगाद रसनिष्पत्तिः’ के अनुसार केवल भाव का क्षेत्र मानकर चलते हैं और ज्ञान या विचार को रसाभास का आधार बना डालते हैं, ऐसे रसवादियों की मान्यताओं को अतार्किक सिद्ध करने में आचार्य शुक्ल की उक्त मान्यताएँ सही और वैज्ञानिक सूझबूझ से युक्त मानी जानी चाहिए। वस्तुतः विचार के बिना भाव के निर्माण की क्रिया किसी भी प्रकार सम्भव नहीं। हमारे मन में यदि यह विचार नहीं है कि पाकिस्तान हमारा शत्रु है, वह हमें नष्ट करने पर तुला है तो पाकिस्तान के प्रति क्रोध और रौद्रता का क्या औचित्य? यदि हम यह न मानें कि राष्ट्र के प्रति हमारे ढेर सारे कर्तव्य हैं, उसकी रक्षा करना हमारा दायित्व है तो राष्ट्र के प्रति प्रेम या भक्ति का रस-परिपाक किस प्रकार सम्भव? यदि हमारी तर्क-शक्ति इस तथ्य तक न पहुँच पाये कि आतंकवादी बेगुनाहों की जानें ले रहे हैं तो उनके प्रति कैसे हो पायेंगे घृणा के चरमोत्कर्ष के दर्शन? अर्थ यह कि हर प्रकार के गूढ़ या प्रत्यक्ष तथ्यों की मार्मिकता, भावात्मकता या रसात्मकता के निर्माण में हर तरह से हमारे विचार ही अहं भूमिका निभाते हैं।
आचार्य शुक्ल कहते हैं-‘‘बात यह है कि केवल इस बात को जानकर ही हम किसी काम को करने या न करने के लिये तैयार नहीं होते कि वह काम अच्छा है या बुरा, लाभदायक है या हानिकारक। जब उसकी या उसके परिणाम की कोई ऐसी बात हमारी भावना में होती है जो आल्हाद, क्रोध, करुणा, भय, उत्कंठा आदि का संचार कर देती है, तभी हम उस काम को करने या न करने के लिये उद्यत होते हैं। शुद्ध ज्ञान या विवेक में कर्म की उत्तेजना नहीं होती। कर्म प्रवृत्ति के लिये मन में कुछ वेग का आना आवश्यक है। यदि किसी जन-समुदाय के बीच कहा जाये कि अमुक देश तुम्हारा इतना रुपया प्रतिवर्ष उठा ले जाता है तो सम्भव है उस पर कुछ प्रभाव न पड़े। पर दारिद्रय और अकाल का भीषण और करुण दृश्य दिखाया जाये, पेट की ज्वाला से जले हुए कंकाल कल्पना के सम्मुख रखे जायें और भूख से तड़पते हुए बालक के पास बैठी हुई माता का आर्त्त क्रन्दन सुनाया जाये तो बहुत से लोग क्रोध और करुणा से व्याकुल हो उठेंगे और इस दशा को दूर करने का उपाय नहीं तो संकल्प अवश्य करेंगे। पहले ढँग की बात कहना राजनीतिज्ञ या अर्थशास्त्री का काम है और पिछले प्रकार का दृश्य भावना में लाना कवि का। अतः यह धारणा कि काव्य व्यवहार का बाधक है, उसके अनुशीलन से अकर्मण्यता आती है, ठीक नहीं। कविता तो भाव प्रसार द्वारा कर्मण्य के लिये कर्म-क्षेत्र का और विस्तार कर देती है।’’
आचार्य शुक्ल के उक्त तथ्यों सहमत होने के बावजूद यहाँ निवेदन सिर्फ इतना है कि माना हमारा व्यवहार मात्र काम के अच्छे-बुरे लाभदायक, हानिकारक कारणों के ही द्वारा सम्पन्न नहीं होता। लेकिन यह भी तय है कि उस काम के परिणाम की कोई ऐसी भावना भी नहीं होती जो यकायक मन में आल्हाद, क्रोधादि का संचार कर देती हो। जिसे आचार्य शुक्ल भावना मानकर चल रहे है, यह वही वैचारिक कारण हैं, जिनका परिणाम काम के अच्छे-बुरे, लाभदायक, हानिकारक रूप में प्रत्यक्षीकृत होता है। अन्तर सिर्फ इतना है कि उनकी दृष्टि यहाँ कोरी भावात्मक है, ज्ञानात्मक नहीं। किसी जन समुदाय के बीच यह कथन कि अमुक देश तुम्हारा इतना रुपया प्रतिवर्ष उठा ले जाता है’’ इसलिये मन में किसी प्रकार का वेग नहीं ला सकता क्योंकि इससे हमें देश के वास्तविक हालात का सही-सही ज्ञान का पता नहीं मिल पाता अर्थात् वास्तविक हानि के ज्ञान से हम वंचित रह जाते हैं, जबकि दारिद्र, अकाल के भीषण और करुण दृश्य, पेट की ज्वाला से जले हुए कंकाल और भूख से तड़पते हुए बालक के पास बैठी हुई माता का आर्त्त-क्रन्दन उसी जन समुदाय को इस बात की पूरी जानकारी दे देता है कि अमुक देश के द्वारा प्रतिवर्ष इतना रुपया उठा ले जाने के कारण देश की ऐसी हालत हो गयी है।
शोषण से त्रस्त जन समुदाय के बीच जो लोग मात्र देश के दारिद्रय, अकाल और जान-माल की दुर्दशा को देखकर यह सोचेंगे कि हाय हमारे देश की क्या हालात हो गयी है, इसका कुछ निदान होना चाहिए’ उनके मन में करुणा जागृत हो जायेगी, लेकिन जिन लोगों के मन में यह विचार आयेगा कि अमुक व्यक्ति या देश ने हमारा धन हड़पकर ऐसे त्रासद करुणामय हालात पैदा किये हैं, वह हमारा शत्रु है, उसे इस करतूत का दण्ड मिलना चाहिए तो उनके मन में विद्रोह जागृत हो जायेगा।
कहने का अर्थ यह है कि कविता को विचार और भाव के इस बिन्दु पर लाकर जब तक खड़ा नहीं किया जाता, जब तक कोरे भावात्मक तरीकों से कविता का कवितापन तय किया जाता है, तब तक आचार्य शुक्ल कितना भी चीखें कि-‘‘सूर और तुलसी आदि स्वच्छन्द कवियों ने हिन्दी कविता को उठाकर खड़ा ही किया था कि रीतकाल के शृंगारी कवियों ने उसके पैर छांटकर उसे गन्दी गलियों में भटकने के लिये छोड़ दिया। फिर क्या था नायिकाओं के पैरों में मखमल के सुर्ख बिछौने गड़ने लगे। किसी ने षड्ऋतु की लीक पीटते हुए तो कहीं शरद की चाँदनी से किसी विरहणी का शरीर जलाया, कहीं कोयल की कूक से कलेजों के टूक किये, कहीं किसी को प्रमोद से प्रमत्त किया। उन्हें तो इन ऋतुओं को उद्दीपन मात्र मान संयोग और वियोग की दशा का वर्णन करना रहता था। उनकी दृष्टि प्रकृति के इन व्यापारों पर तो जमती नहीं थी, नायक या नायिका ही पर दौड़-दौड़ कर जाती थी, अतः उनके नायक या नायिका की अवस्था-विशेषकर प्रक्रति की दो चार इनी-गिनी वस्तुओं से जो संबंध होता था, उसी को दिखाकर वे किनारे हो जाते थे।’’
लेकिन डॉ. शुक्ल के उक्त तथ्य इस नाते बेजान भी लगते हैं कि जब कविता को मात्र रस के आधार पर ही परखना है तो रस तो रीति काल के शृंगारी कवियों के काव्य में भी आता है और सौभाग्य या दुर्भाग्यवश ऐसे काव्य के रसिकों की संख्या सर्वाधिक है।
बहरहाल कविता के प्रश्न पर आचार्य शुक्ल जितने सुलझे हुए दिखलायी देते हैं, उतना ही वह उलझाव तोल्स्तोय के भ्रातत्ववाद, कबीर, केशव, दादू आदि को खारिज कर मात्र तुलसी की स्थापना की गरज से पैदा भी करते हैं।
अस्तु! कविता विचार की सत्ता को नकार कर स्पष्ट नहीं की जा सकती। कविता के प्रति यदि हमारे पास एक सही और सार्थक वैचारिक दृष्टि है, जो लोक या मानव की दशा-दुर्दशा पर केन्द्रित होती हुई, ऐसी भावात्मकता की ओर ले जाती है, जिसमें सत्य और शिवतत्व का समन्वय हो तो उसकी सौन्दर्यात्मकता असंदिग्ध है।
वस्तुतः विचारों की सुन्दरतम् प्रस्तुति का नाम ही कविता है। भाव तो उन विचारों से जन्य ऊर्जा है। विचार लोक या मानव-सापेक्ष हों तो उनसे निर्मित भाव, लोक या मानव की सात्विक रागात्मकता का परिचय न दें, ऐसा असम्भव है।
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+रमेशराज, 5/109,ईसानगर, निकट-थाना सासनीगेट, अलीगढ़-202001