आचार्य शुक्ल की कविता सम्बन्धी मान्यताएं
‘‘जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान-दशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिये मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आयी है, उसे कविता कहते हैं।’’
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबन्ध ‘‘कविता क्या है’’ में कविता के बारे में दिये गये उक्त तथ्यों की सार्थकता इन तर्कों के साथ बेहद सारगर्भित है कि-‘‘ कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-सम्बन्धों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक सामान्य की भाव-भूमि पर ले जाती है, जहाँ जगत की नाना गतियों के मार्मिक स्वरूप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है। इस भूमि पर पहुँचे हुए मनुष्य को कुछ काल के लिये अपना पता नहीं रहता। वह अनुभूति सबकी अनुभूति होती है या हो सकती है।’’
‘कविता क्या है’ जैसे जटिल प्रश्न को सुलझाते हुए आचार्य शुक्ल ने निश्चित रूप से कविता के प्रश्न को लेकर बेहद मौलिक और सारगर्भित तथ्य प्रस्तुत किये हैं। कविता के व्यक्तिवादी स्वरूप को लोकमंगल की भाव-भूमि पर खड़ा करने का श्रेय आचार्य शुक्ल के हिस्से में ही जाता है। किंतु आचार्य शुक्ल के उल्लेखित कथन कई शंकाओं को भी जन्म देते हैं जिनका समाधान किया जाना आवश्यक है-
1. आत्मा की वह कौन-सी मुक्तावस्था है, जो ज्ञानदशा कहलाती है?
2. हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कैसे बन जाती है? इस रस-दशा के निर्माण में [ बिना आत्मा से कोई सहयोग लिये ] हृदय किस प्रकार अपनी भूमिका निभाता है?
3. कविता के संदर्भ में क्या हृदय और आत्मा को अलग-अलग रखकर कोई कवि कविता का सृजन कर सकता है तथा क्या कोई आस्वादक इस स्थिति में किसी कविता का आस्वादन ग्रहण कर सकता है?
4. जब आचार्य रामचन्द्र शुक्ल यह कहते हैं कि-‘‘विभाव, अनुभाव के ज्ञान से रसात्मक अनुभूति होती है [ रस मीमांसा पृ. 412 ], तब क्या उनकी यह अवधारणा उनके इन्हीं तथ्यों के विपरीत नहीं जाती? यदि विभाव, अनुभाव का ज्ञान, रस नामक अनुभूति का निर्माण करता है तो इसके बीच में यह कथित हृदय मुक्त होकर कहाँ से टपक पड़ता है। देखा जाये तो जिसे आचार्य शुक्ल हृदय की मुक्तावस्था बताते हैं, वह मुक्तावस्था हमारे आत्मा का वह लोकोन्मुखी आत्म-विस्तार है, जिसके द्वारा वे कथित हृदय के स्वार्थ सम्बन्धों के संकुचित मंडल को ऊपर उठाकर लोक सामान्य भाव-भूमि पर ले जाते हैं?
यही कारण है कि यदि उनके तर्कों को उनके ही संदर्भों के उसी रूप में स्वीकार लें, तो ऐसी कई दिक्कतें अनुभव होती हैं जिनका समाधान ‘हृदय की मुक्तावस्था’ से संभव नहीं । प्रश्न है कि आचार्य शुक्ल की व्यक्तिगत सत्ता रीतिकालीन काव्य के प्रति लोकसत्ता में समाहित क्यों नहीं हो पाती? केशव के काव्य के प्रति उनके हृदय की कथित मुक्तावस्था इतनी संकुचित और हृदयहीन क्यों हो जाती है कि वे केशव को ‘काव्य की प्रेत’ बताने लगते हैं?
इस प्रकार तो आचार्य शुक्ल के ‘हृदय की मुक्तावस्था की रस-दशा’ कविता की परिधि से बाहर ही धकेल देनी पड़ेगी, भले ही उसके माध्यम से बहुत से आस्वादकों का हृदय लोक-हृदय में विलीन हो जाता हो। इसलिये कविता को स्पष्ट करने में ‘हृदय की मुक्तावस्था और उसका लोक हृदय में विलीन हो जाने’ का सिद्धान्त कविता के संदर्भ में अधूरा प्रतीत होता है।
कविता हमारे लोक-जीवन की एक ऐसी रागात्मक प्रस्तुति है, जो एक तरफ रागात्मक सम्बन्धों में मानवीय गुणवत्ता का समावेश करती है, वहीं उन रागात्मक सम्बन्धों को अपनी सुरक्षात्मक वैचारिकता के साथ विभिन्न प्रकार के रसात्मक-बोधों से आश्रयों को सिक्त करती है। इस प्रकार के रसात्मक-बोध की आलम्बन सामग्री आचार्य शुक्ल के अनुसार भले ही-‘‘कल कारखाने, गोदाम, स्टेशन, एंजिन, हवाई जहाज, अनाथालयों के लिये चैक काटना, सर्व स्वहरण के लिये जाली दस्तावेज बनाना, मोटी की चरखी घुमाना, एंजिन में कोयला झोंकना आदि विषयों के स्थान पर वन, पर्वत, नदी, आकाश, मेघ, नदी, आदि’’ से वंचित रही हो, लेकिन इस प्रकार के विषय भी कविता को रस परिपाक तक ले जाते हैं, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता। शुक्लजी कहते हैं-‘‘ जिन रूपों और व्यापारों से मनुष्य आदि युगों से परिचित है, जिन रूपों को सामने पाकर वह नरजीवन के आरम्भ से ही लुब्ध और क्षुब्ध होता आ रहा है, उनका हमारे भावों के साथ मूल या सीधा सम्बन्ध है।’’
आचार्य शुक्ल के इन तथ्यों में गाम्भीर्य है, किन्तु यह कोई आवश्यक नहीं है कि नरजीवन जिन रूपों से आरम्भ से ही लुब्ध और क्षुब्ध होता आ रहा है, वह उन्ही रूपों से ठीक उसी प्रकार लुब्ध और क्षुब्ध आज भी होता रहे। अपनी अधिकांश दिनचर्या का हिसाब कल कारखानों और नगरीय जि़न्दगी में गुजारने वाले व्यक्तियों के जीवन के मूल रूप तो आज कारखाने और नगर ही हैं। अतः उसकी दृष्टि का वैचारिक और भावात्मक विकास इन्हीं कारखानों और नगरों से जुड़ा न हो, यह सम्भव नहीं। वर्ग-संघर्ष की कविता तो इन्हीं कल कारखानों के नगरीय जीवन में जन्मी, बढ़ी और पली है तथा इन्हीं नगरीय विवशताओं, विडंबनाओं, विभीषिकाओं तथा विसंगतियों- असंगतियों के बीच विभिन्न प्रकार की रसात्कमता से सिक्त हुई है। नगरीय जीवन को विभिन्न कोणों से उभारती यह कविता आश्रय के मन को भले ही परंपरागत तरीके से रसात्मक बोध से सिक्त न करती हो, लेकिन नये तरीके से ही सही, रसाद्र तो करती ही है। आचार्य शुक्ल कविता पर बात करते समय ’सभ्यता के आवरण और कविता’ उपशीर्षक देकर उपरोक्त तथ्यों की ओर संकेत देते भी हैं, किन्तु इन संकेतो में कवि-कर्म का क्षेत्र नगरीय और कारखानों की जि़न्दगी पर केन्द्रित नहीं। फिर भी वे सभ्यता के आवरणों के बीच कवि-कर्म के अन्तर्गत कविता के द्वारा प्राकृत रूपों का जिस प्रकार प्रत्यक्षीकरण कराते हैं, उसमें अर्थ-ग्रहण के साथ-साथ बिम्ब-ग्रहण की योजना कविता को निस्संदेह ऊर्जस्व बनाती है।
वस्तुतः कविता का सृष्टि संसार, वाह्य प्रकृति और अन्तः प्रकृति का सामजस्य होने पर ही विचारों को भावात्मक ऊर्जा से लैस करता है। कवि दीन-दुखियों का आर्तनाद, अनाथों, अबलाओं पर अत्याचार यदि कारखानों, राजनीतिक परिवेश, महाजनी व्यवस्था के अंतर्गत देखता है तो इसकी वाह्य प्रकृति और आन्तरिक प्रकृति का सामाजस्य भले ही प्रकृति के आरम्भिक रूपों के साथ घटित न हुआ है, लेकिन इसमें हर प्रकार की भावात्मक व्यवस्था का विकास सम्भव है।
आचार्य शुक्ल के इन तथ्यों की सार्थकता से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि-‘‘जो केवल अपने शरीर-सुख की सामग्री प्रकृति में ढूँढा करते हैं, उनमें उस रागात्मक सत्व की कमी है जो व्यक्त सत्ता मात्र के साथ एकता की अनुभूति में लीन कर के व्यापकत्व का आभास देता है। बुद्धि की क्रिया से हमारा ज्ञान जिस अद्वैत भूमि पर पहुँचता है, उसी भूमि तक हमारा भावात्मक हृदय भी इस सत्व के प्रभाव से पहुँचता है। इस प्रकार अन्त में जाकर दोनों पक्ष की वृत्तियों का समन्वय हो जाता है। समन्वय के बिना मनुष्यत्व की साधना पूरी नहीं हो सकती।’’
किंतु कविता के संदर्भ में इस समन्वय की यदि प्रकृति और मनुष्य के सम्बंधों के बीच ही इतिश्री हो जाती तो शायद अलग लिखने को कोई विषय न रहता। जहाँ समूचा का समूचा परिवेश भूख-गरीबी, शोषण, सांप्रदायिकता, दहेज, बलात्कार जैसी विकृतियों, विसंगतियों के बीच फँसा हो, दिन-रात कलपुर्जों के बीच मानव एक कलपुर्जा बन कर रह जाता हो, साम्राज्यवादी शक्तियाँ पूरे के पूरे माहौल को एक शीतयुद्ध की आग में झोंक देती हों, अथक परिश्रम के बावजूद मानव भूखा और दुखी मन सो जाता हो, महानगरों के निवासी खिड़कियों से ही यदा-कदा धूप और चाँदनी के दर्शन करते हों। ऐसे जटिल और अन्तहीन समस्याओं से ग्रस्त मानव को ‘‘मधुर सुसज्जित, भव्य, विशाल, विचित्र या रूखे-बेडौल, कर्कश, उग्र, कराल या भयंकर रूप में उसके सामने प्रस्तुत हुई प्रकृति का चिर साहचर्य’’ कैसे प्राप्त होगा? उसमें किस प्रकार वह अनुराग जागृत हो सकेगा, जो ‘‘मनुष्य और प्रकृति के दोनों पक्षों की वृत्तियों का समन्वय’’ कर सके।
प्रकृति के समन्वय के अभाव में भले ही मनुष्यत्व की साधना पूरी न हो पाती हो, परन्तु मनुष्य के जीवन से उठायी गयी संघर्ष-गाथाओं का सृष्टि संसार, प्रकृति और मनुष्य के समन्वय के संसार से कम मार्मिक, रसात्मक और सौन्दर्यमय नहीं होता। बशर्ते कलपुर्जों से लेकर महानगरीय त्रासदियों के संस्कारों से कवि का संस्कार-जगत अलग-थलग न हो। मनुष्य के मन में संस्कार रूप में बसी त्रासदियों भरी दुनिया का करूणामय आलोक चाहे विरोध, विद्रोह, असंतोष, आक्रोश जैसी विभिन्न प्रकार की भावात्मक स्थितियाँ लेकर उभरे, लेकिन इस प्रकार की रचना-सृष्टि चिरसाहचर्य युक्त और उसकी रागात्मकता सत्य से परिपूर्ण होती है।
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+रमेशराज, 5/109,ईसानगर, निकट-थाना सासनीगेट, अलीगढ़-202001