आग!
जब दहकती हुई आग,
चलकर रूह तक जाती है।
तब उर में कुछ गढ़ने की,
करने की आग दहकती है।
जब जलती है तेज आग,
काठ भी जल्दी होती राख।
लपटे जितनी ऊंची उठती,
उतनी बढ़ती है उसकी साख।
बाहर राख दिखता अंगार,
भीतर प्रबल दहकता है।
तनिक ईंधन के मिलते ही,
प्रबल ज्वाला सम जलता है।
आग तो लेकिन आग ही है,
किन्तु ये ‘दीप’ सम होती है।
जैसे ‘दीप’ तम को हरता,
वैसे ये शीत को हरती है।
-जारी
-कुलदीप मिश्रा