आग्रह बरगद से
उष्ण आदित्य के तीक्ष्ण ताप में
बिलबिलाते हुए समुद्र से
मत कहो कि
बड़ा शीतल है तुम्हारा छाँव।
कर्मयोगी का योग न करो भंग।
शुष्क पवन के तेज प्यास में
आहूति की तरह होम हो रहे मेघ से
मत कहो कि
बड़ा विशाल है तुम्हारा ठाँव।
कर्मशील का शील न करो भंग।
शुभ्र आकाश के विराट फैलाव में
प्रवाहित हो रहे वायु से
मत कहो कि
बड़े आकर्षक हैं तुम्हारे गह्वर।
कर्मनिष्ठ की न्ष्ठिा न करो भंग।
घनघोर वृष्टि के घातक आघात में
खेत जोतते हुए किसान से
मत कहो कि
बड़ा मीठा है तुम्हारा फल।
कर्मोद्योगी का उद्योग न करो भंग।
लौह भठ्ठी के उच्च तापक्रम में
लौह पिघलाते लौह पुरूष से
मत कहो कि
बड़ा ठंढ़ा है तुम्हारा श्वेत–रक्त।
कर्मसिद्ध की सिद्धि न करो भंग।
अंधेरी‚भयावह‚काली सुरँगों में
फावड़े चलाते दृढ़ भुजाओं को
मत कहो कि
बड़ी उर्जाशील है तुम्हारी काष्ठकाया
मनोबली का मनबल मत करो भंग।