“आखिर क्यों”
.आखिर क्यों
तोड़कर उस डाली से फूल
क्यों वो लोग अपने घर ले जातें है…!
होकर जुदा अपनी परछाई से
भला किस तरह वो माँ बाप रह पातें है…!!
सोचकर उस बात को
लबों पर लाना हम तो घबरा जातें है…!
ज्यादा बोलकर क्यों वो
अपनी सीमा तोड़ जातें है…!!
शिक्षा का अर्थ, है नहीं
किसी जात पात से,
फिर भेदभाव की शिक्षा
कहा से वो लातें है…!
सुनकर किसी गैर की बात को
अपनों से नाता वो तोड़ जातें है…!!
छाया में बैठकर क्यों वो
उस पेड़ की कीमत भुल जातें है…!
लेकर हाथों में अपने कुल्हाड़ी
रोज रोज दर्द देने आ जातें है…!!
बनावट तो एकसमान है सभी की,
फिर ये कौन सी छाप धर्म की
अपने शरीर पर ले आते है…!
देखतें है प्रतिदिन
खुद को दर्पण में,
क्या वो कभी एक दिन
खुद को खुद से मिलाते है…!!
पार कर इंसानियत
की सलतनत को,
ये ऊच निच का जलजला
कहा से लातें है…!
बसें है परमात्मा तो प्रकृति
के कण कण में,
फिर क्यों “आरती ” लेकर
मंदिरों और मजारों में वो जातें है…!!
कुमारी आरती सुधाकर सिरसाट
बुरहानपुर मध्यप्रदेश