आक्रोश
भारत के हित को रोके जो , वो बन्धन आज तोड़ती हूँ ।
जो आक्रोश दबा बैठी थी , पुनः आज लिखती हूँ ।
घर के भेदी जो बन जायें ,विश्वास उसी ने ढ़ाया है
है अपना खून नही गद्दार , कोई भेदी घुस आया है
वह भेदी घुसकर आलय में , खूब तबाही मचा रहा
नवभारत की उम्मीदों को ,हर-क्षण खण्डित बना रहा
उन दुष्टों की मैली आकांशा लिख कागज़ मैला करती हूँ
जो आक्रोश दबा बैठी थी पुनः आज लिखती हूँ …….
उठो और पहचान करो , इन दुष्टों और गद्दारों की
आज समाप्त कर दो वो जड़ जो मनसा हो इन मक्कारों की
कांप उठेगा सम्पूर्ण विश्व ऐसी क्रान्ति हम लायेंगे
इनके आश्रयदाताओं को हम नानी याद दिलायेंगे
आज़ाद-लाहिड़ी-सावरकर को पुनः आज लिखती हूँ
राजगुरु-सुखदेव-भगत को कलम से सम्बोधित करती हूँ
जो आक्रोश दबा बैठी थी पुनः आज लिखती हूँ ….
निहारिका सिंह