आकाशदीप
चाँद!
आज
तुम –
बहुत सुंदर दिख रहे हो।
जानते हो – कैसे?
विचारों के
घने बादलों के बीच,
मन के आकाश पर,
लुक-छिप करते,
इशारों के अनकहेपन जैसे!!
रुई के नरम टुकड़ों से,
तुम ऐसे झाँक रहे हो-
जैसे
घने जंगल की,
ऊँची वनस्पतियों के,
पत्तों से छनकर,
आसमान झाँकता है!
आकाशदीप!
जानते हो?
तुम-
शीतल क्यों हो!
तुम बाँटते हो!!
जो बाँटता है –
शीतल होता है!!!
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