आओ पुनर्निर्माण करें….
चहुँ ओर बरबादी का मंजर दिखाई देता है !
नहीं सुरक्षित अब कोई घर दिखाई देता है !!
अपना या पराया कहें किसे हम और कैसे !
हर एक हाथ में अब खंजर दिखाई देता है !!
कभी लहलहाती थी खेती जहाँ दूर तलक !
आज वहीं मरुथल औ बंजर दिखाई देता है !!
वो रूप वो नूरो कमनीयता कहाँ रही अब !
जीवन दुखों का अस्थिपंजर दिखाई देता है !!
बदला बहुत जमाना फलक और सा लगता !
साया भी कहाँ अपना सहचर दिखाई देता है!!
वे जो अपने थे देख अब यूँ तरेरते हैं आँखें !
उनके भीतर जैसे कोई बिषधर दिखाई देता है !!
आओ पुनर्निर्माण करें रचें नव रूप-आकार !
ढाँचा ये इंसानियत का जर्जर दिखाई देता है !!
कितनी हो रात काली टिकती नहीं अधिक है !
झांकता प्राची से रविकर निकर दिखाई देता है !!
खत्म होगी हर अदावत मुहब्बत रंग लाएगी !
आएगा फिर से सुहाना सफर दिखाई देता है !!
– डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)