आओ ना एक दीप जलायें
मर्यादा के विजय का पर्व,
हर हर नारी को है गर्व।
जग को मर्यादा सिखलाने,
आदर्शों की राह दिखाने,
नई रंगोली घर में बनाएं।
आओ ना एक दीप जलायें।।
जिनके घर का आँगन सुना,
अम्बर का छत भी है जूना।
दीया जिनका तेल बिन खाली,
खाली दिखे पूजा की थाली,
अक्षत रोरी घी चंदन से,
मिलजुल घर उनका महकाएं।
आओ ना एक दीप जलायें।।
जिनके आंखों में लोर आस की,
होठों पे है भूख प्यास की।
रोगयुक्त काया है मन के,
तन निर्वस्त्र मलिन है जन के,
रुई बाती की सिलवाकर,
तन ढकने एक वस्त्र बनाएं।
आओ ना एक दीप जलायें।।
जिनपर मँहगाई है भारी,
सिसक रही है खुशियाँ सारी,
बच्चों को उनके बहलाने,
चकाचौंध आकाश दिखाने,
फुलझड़ियों की लड़ी सजाकर,
प्रदूषण उनको दिखलायें।
आओ न एक दीप जलायें।।
सीमा पर हैं जो पहरेदार,
जिनसे है तिरंगा लहरेदार,
वतन समर्पित जान लुटाने,
नहीं हैं घर खुशियाँ जुटाने,
उन बलिदानों को शीश झुकाएँ।
आओ ना एक दीप जलायें।।
जो बोये हैं काँटे जग में,
कंकड़ पत्थर जिनके पग में,
चुभ जाती बाण बन बातें,
बिन नींद कट जाती रातें,
दर्द हिया उनके सहलाने,
पथ में उनके फूल बिछाएं।
आओ ना एक दीप जलायें।।
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अशोक शर्मा,कुशीनगर,उ.प्र.
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