आओ खुशियाँ बाँटें
हज़ारों खिल गये गुल फिर भी यह गुलशन तरसता है
कि लाखों पत्थरों के बीच इक हीरा तरशता है।
सुखाओ फूंक कर इंसानियत तुम उनके छालों को
कि दहशत से न जीने का कोई मक़सद निकलता है।
करोगे तुम जो नेकी तो तुम्हें हासिल वही होगी
भले कामों का भी अंजाम तो अच्छा निकलता है।
बिछाना मखमलें तुम तो सदा ही राह में उनकी
कि बिन मांँ बाप के भी क्या तेरा जीवन निखरता है।
सुखाओ प्यार के मरहम से तुम दुखियों के जख़्मों को
कहीं तलवार से भी पैर का कांटा निकलता है।
रंजना माथुर
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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