आओगे मेरे द्वार कभी
आओगे मेरे द्वार कभी…..
आओगे मेरे द्वार कभी
दंभ देहरी पर झटक आना
रख देना गुस्सा बाहर ही
निर्मल मन ले भीतर आना
मंदिरों सा पावन मन मेरा
सजा थाल प्रतीक्षा करता
रख ही लूँगी मान तुम्हारा
अपने आँचल में समेट के
कोमल भावनाएँ हॄदय की
प्रेम से सिंचित तुम कर देना
धागे नेह के कोमल बड़े
बुने विश्वास के रेशों से
रख सको जो तुम मान मेरा
तब ही भीतर तलक आना
चाहता मन मेरा बस यही
नारी सी कोमलता लिए
फिर कोई आडंबर न करना
झूठा अहंकार यूँ न भरना
अभिमान उसी कोने रख देना
आओगे मेरे द्वार कभी
दंभ देहरी पर झटक आना।।