आईना
जब गया उसके समक्ष
तो अक्स अपना देखकर
सहमा ठिठका स्तब्ध था
मैं सोचकर
क्यों नहीं करता प्रशंसा धन
सफलता रूप की
अनभिज्ञ है ये मैने सहीं है
यातनाएँ धूप की
एकटक मैने निहारा जब
अनंत गहराई मे
चंद काले दाग से दिखने लगे
परछाई मे
हाथ का रुमाल फेरा
आज उसकी धूल पर
न हुए जब दाग ओझल
पछता गया तो भूल पर
गौर से देखा जरा जब मन
की आंखें खोल कर
आईना भी हँस पड़ा दो शब्द
केवल बोल कर
उजला हुआ चेहरा है लेकिन
मन कहाँ से साफ है
है सफलता लूट से और मन मे छिपाया पाप है
©
शरद कश्यप