प्रकृति
प्रकृति
जिसका हमनें पतन किया आज
वो कल से हमारे सजृन दाता रहे हैं
जिन्हें हम अपने स्वार्थ के लिए काटते रहे कल
वो ही हमारे आज फिर से प्राणदाता बन रहें हैं..
हम अपनी धरा का वो सब धर्म लुटतें रहे
जिसने सृजन किया अपने लिए उसे लुटतें रहे
वो कल का सुख देने खातिर खुद को यूँ सुदृढ़ किया
मगर हमने अपने अहंम में उसका सब कोसते रहे हैं..
वो हमें जिदां रखने को हमारा जहर पीती रही
खूद यूँ छु छु कर सदा हमें प्राणांत वायु देतीं रही
अपने हर एक हिस्से से हमारी भुख मिटाती रही
सड़ी गोबर में जिदां रहकर हमारी प्रकृति बचाती रहीं.
मगर स्वार्थ के कोलाहल ने उस का हक़ छिन लिया
जल वायु गगन धरा सब को उसने मटमैला किया
थोडे़ से निजस्वार्थ खातिर धरतीपुत्र ने अहंकार किया
अपना मैं धरने को उसने आज! अपनी माँ को बैच दिया…..
आओ हम सब मानवी! अपनी भुल को सुधारें
छिनभिन हुई जो प्रकृति! उसे फिर से सवारें
गगन धरा वायु जल का फिर से यूँ पुजन करें
खुद का हो उसमें वजुद ऐसा प्रकृति का संरक्षण करें ।
स्वरचित कविता
सुरेखा राठी