आईना…
वो मेरा आईना था —–
ये चेहरा तो मेरा न था, ये कैसा आईना था !
बदले अक्स दिखाता, बदला-सा आईना था !
रूप-रंग संग दिल भी, होता जिसमें साकार,
फिर वही मुझे लौटा दो, जो मेरा आईना था !
इतना वह मेरा अपना, हमदर्द बन गया था,
टूटता जब कुछ मुझ में, दरकता आईना था !
मैं सुबक-सुबक जब रोती, चैन अपना खोती,
प्यार भर नयन में, मुझे समझाता आईना था !
पाकर करीब उसे मैं, सुध-बुध बिसरा जाती,
मदहोश जरा जो होती, सँभालता आईना था !
न मैं अलग थी उससे, न वो पृथक् था मुझसे,
संग वजूद के मेरे, घुलता-मिलता आईना था !
जड़ीभूत करके मुझको, खुद थिरकने लगता,
खुशबू जो तन से झरती, महकता आईना था !
भावाकृति हमारी, मिला करती बहुत परस्पर,
इस पार मेरी दुनिया, उस पार वो आईना था !
चूँड़ी-बिंदिया-बिछुवे, मेंहदी-महावर रचती,
निहारती उसमें खुद को, वो मेरा आईना था !
जितनी उसकी हस्ती, बस उतनी ‘सीमा’ मेरी,
मुझे देखकर खुशी से, मुस्कुराता आईना था !
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)