आईना
आईना
कहीं नहीं हूँ मैं
अपनी कविता में
नहीं है मेरा कोई सपना
या फिर कोई अपना
हैं तो बस आंसू
या फिर आहें
या फिर कराहें
जो किसी मासूम को
पीटे जाने पर
देती हैं सुनाई
या फिर बद्दुआऐ
भूखे पेट या आत्यचारों से
उपजी रुलाई
या फिर चीखें
मसली जाती कलियों की
या फिर उन उजड़ी गलियों की
जहाँ नहीं पहुचता कोई ज्ञान
न कोई स्वच्छता अभियान
अपराधी रहता निडर, निश्चिंत
पीडितों पर भेजी जाती
लानत-फलानत
कि उसकी देह का होगा
सब किया -धरा
ऐसे में शर्म कर लेती
आत्महत्या
समाज को तडफड़ाते प्रश्नों के
कटधड़े में करके खड़ा।
बस दिखाती है मेरी कविता
अव्यवस्था का ज़हर भरा धोल
आने वाले उजालों की उम्मीद का
बजता ढोल
धरती है गोल
कहती है कविता
उसी की धूरी पर चलो
सूर्य है हमदर्द
उसके आगे प्रदूषण न खड़ा करो
प्रकृति है समुज्जवला
उसका अपमान मत करो
प्रकृति देती है
उससे लेने वालो बनो
मेरी कविता के हाथ में है
एक आईना
दिखाती चलती है
अच्छा है या बुरा
संवेदन है या खुर्दरा
कोई भी देखे
चाहे तो संवार ले
उसमें अपना चेहरा।