आईना देखता कहाँ कोई
दर्द किससे करूँ वयाँ कोई।
आज अपना नहीं यहाँ कोई।१
हर तरफ आज जो धुआँ सा है,
जल रहा है उधर मकाँ कोई।२
हर कदम पर मिला मुझे ठोकर,
जैसे पत्थर हूँ रायगाँ कोई।३
आईना भी खफा खफा सा है,
राज इसमें भी है निहाँ कोई।४
हाथ बेगम उठा रही देखो
चुप रहा मर्द बेजुबाँ कोई।५
दाग़ औरों के बस नजर आते,
आईना देखता कहाँ कोई।६
हाथ आता नहीं बचाने को,
आदमी डूबता जहाँ कोई।७
अब कहीं और तुम मिलो मुझसे,
रोज आता है अब वहाँ कोई।८
दर्द गम के लिए न हो खिड़की,
ढूंँढना ‘सूर्य’ तुम मकाँ कोई।९
(स्वरचित मौलिक)
#सन्तोष_कुमार_विश्वकर्मा_सूर्य
तुर्कपट्टी, देवरिया, (उ.प्र.)
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