आइये झांकते हैं कुछ अतीत में
आइये झांकते हैं कुछ अतीत में
पोंछते हैं आईने की धूल को
कड़वा है – पर सच है –
बस हम ही सहारा झूठ का लेकर
बहलाते हैं मन को
नकारते हैं सच
खुद से ही चुराते हैं नज़रें
नहीं देखते साफ़ किये आईने में
गुजर गए जो वो
कौन रोता हैं रोज़
उनके जाने के बाद
अपने ही रोज़ के रोने से
कहाँ है फुर्सत
सूखे फूल तस्वीरों पर
लगा हर साल
आत्मग्लानि ना हो
शर्मिंदगी से झुका के सर
कहते हैं
बहुत याद करते हैं तुमको हम
बस सहारा झूठ का लेकर
बहलाते हैं मन को
नकारते हैं सच हम !
~ अतुल “कृष्ण”