आंधियां आती हैं सबके हिस्से में, ये तथ्य तू कैसे भुलाता है?
अंतर्मन के द्वंदों से आज भी मन थर्राता है,
बीते वक़्त का तूफ़ान जब राहों को भरमाता है।
शब्दों का वो कोलाहल संवेदनाओं को स्तब्ध कर जाता है,
आघातों की क्रमबद्धता ,आत्मा का शवदाह दिखाता है।
अंधकार के प्रचंड काल में, जले दीप भी बुझाता है,
फूलों का भ्रम फैला कर काँटों का ताज सजाता है।
मौन में छुपे आंसुओं को स्वयं की विजय बताता है,
संस्कारों में बसी दुविधाओं का लाभ बहुत उठाता है।
बोझिल आँखों को स्वप्न नहीं, रक्तपात दिखाता है,
चरणों को मंदिर नहीं, मरघट की ओर ले जाता है।
नफरत की पोटली से खुद का शीश सजाता है,
ईर्ष्या भरे आचरण पर गर्वित हो इठलाता है।
भावभंगिमा ऐसी इसकी, कि सर्प भी चकित हो जाता है,
विषधर कहते सब मुझको, फिर ये विष कहाँ से लाता है।
रिश्तों की बगिया में जब परायापन अंकुरित हो जाता है,
अपनों के मन का लहू चूसकर, स्वयं को संत बताता है।
उत्कृष्टता के छलावे में इतना अँधा हो जाता है,
आंधियां आती हैं सबके हिस्से में, ये तथ्य तू कैसे भुलाता है?