आंगन को तरसता एक घर ….
हां ! मैं एक घर हूं ,
सदियों से मैं अस्तित्व में हूं ।
मेरे अंदर लोग रहते हैं ,
परिवार बनाकर ।
सदियों से ही रहते आए हैं।
अंतर बस इतना है कि ,
मेरे अंदर रहने वाले पहले ,
परिवार बड़े हुआ करते थे ।
मेरा आकार बड़ा हो या छोटा हो ,
इससे क्या फर्क पड़ता है ।
लोगों के दिल बड़े हुआ करते थे ।
अब दिल भी छोटे हो गए ,
आकार तो मेरा अब भी बड़ा होता है ,
कहीं कहीं पर ।
मगर अधिकतर छोटा भी होता है ।
लेकिन मेरा मेरा प्यारा आंगन ,
इस निष्ठुर वर्तमान ने छीन लिया ।
अब मैं कलयुग को दोष दूं या इंसानों को !
मुझे मेरा प्यारा गौरव ,
मेरा रूप ,
मुझसे छीन गया ।
मेरी पहचान छीन गईं।
अब मेरा आंगन या तो होता ही नहीं ,
अगर होता है तो उसमें गाय नहीं ,
कुत्ते बिल्ली बंधते हैं।
तुलसी की जगह भी मेरे सामने से हटकर ,
किसी कोने में चली गई है ।
अब मेरा वो आंगन ही न रहा ,
जहां कभी परिवार ,रिश्तेदार,
और पड़ोसी ,मिल बैठकर महफिल जमाते थे ।
अब तो जनाब ! पड़ोसियों के आंगन से ,
आंगन भी नहीं जुड़ते ।
जब आंगन है ही नहीं ,
तो जुड़ेंगे भी कैसे ?
हाय! मेरा प्यारा आंगन ,
मुझसे बिछड़ गया ।
इस भावना विहीन ,
निष्ठुर ,कलयुग ने मेरा आंगन ,
मुझसे छीन लिया ।
मेरे इस आंगन में कभी ,
प्यार ,अपनेपन ,की नदी बहती थी ।
मेरे आंगन में सभी मौसम आकर ,
दस्तक देते थे ।
आह! कितना सुख मिलता था मुझे ।
अपने परिवार के संग मैं भी ,
उनके आनंद में खुशी से झूम जाता था ।
मेरे आंगन में हरियाली छाई रहते थी ।
कई तरह के नन्हे नन्हे और कुछ बड़े ,
पेड़ पौधे,फूल ,लताएं,मेरे आंगन के संग ,
मुझे भी महकाते थे ।
इनसे मेरी शोभा दुगनी हो जाया करती थी ।
अब तो आधुनिकीकरण ने सब बदल दिया ।
मुझे यह बदलाव रास नहीं आ रहा ।
मुझे मेरी खुशियां वापस लौटा दो ।
अरे कलयुगी इंसानों!
मुझे मेरा आंगन वापिस लौटा दो ।