आंख से ही इशारा करो
जब तुम्हारी गली से सुबह -शाम निकलूं
मुझे एक बार नजरें उठाकर निहारा करो
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तुम्हारे बोलने पर पहरा पर पहरा लगा है
बोलकर न सही आंख से ही इशारा करो
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सड़क की मोड़ पर जब भी खड़ा मैं रहूं
दौड़कर मेरे पीछे से आकर पुकारा करो
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पूरा आकाश पूर्णिमा के चांद से घिरा हो
कुछ लम्हें छत पे भी आकर गुजारा करो
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रहा तन मन तुम्हारा तो सदा से सुगंधित
इसमें कुछ मिट्टी की महक मिलाया करो
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साफ-सुथरा रहा मैं तो दरपणों की तरह
सामने इसके कभी-कभी इठलाया करो
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प्यार से जिंदगी जीना तो एक इकरार है
सत्य यह तथ्य किसी से न छिपाया करो
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जिंदगी का फलसफा जब समझ ही गए
इसको हंस-हंस कर सबको बताया करो
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टूटना दूर रहना बिखरना अब तक हुआ
आज से मिलने का कोई तो बहाना करो
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दिन चार की जिंदगी न समय जाया करो
कुछ परायों को भी हृदय से लगाया करो
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– रामचन्द्र दीक्षित ‘अशोक’