आँख मेरी हमेशा छलकने लगी
गीतिका
साँझ बनकर जवानी ये’ ढलने लगी।
जिंदगी रेत जैसे फिसलने लगी।
उम्र के साथ अनुभव बढ़ा हर समय,
जिंदगी ठोकरों से सँभलने लगी।
लाख दौलत कमा कर बनाया महल,
हर खुशी सब्र बिन आज खलने लगी।
बोझ दायित्व का कुछ बढ़ा इस कदर,
हर खुशी अब ठिकाना बदलने लगी।
याद आता बहुत बचपना आजकल,
आँख मेरी हमेशा छलकने लगी।
(स्वरचित मौलिक)
#सन्तोष_कुमार_विश्वकर्मा_सूर्य’
तुर्कपट्टी, देवरिया, (उ.प्र.)
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