‘ आँख का पानी ‘
ये दर्पण भी अजीब हैै
सबको सच दिखलाता है
पर कोई कभी भी
सच को कहाँ देख पाता है ,
सबने गंधारी की तरह
अपनी सोच में जीने के लिए
आँखों पर बांध रखी है पट्टी
सच से भागने के लिए ,
दर्पण अगर तुम्हारे चेहरे की
सुंदरता दिखाता है
वही दर्पण तुम्हारा झूठ भी तो
तुम्हारे सामने लाता है ,
इतना आसान नही होता
सच के दर्पण को झुठलाना
ये तो मन के अंदर होता है
मुश्किल होता है इससे बच पाना ,
सच के दर्पण को क्या
कोई भी ढक पाया है
वो आँखों में उतर कर
आँख का पानी कहलाया है ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 13/12/2020 )