*** अफ़साना ***
अफ़साना फ़लक से गिरती हुई
उस शबनमी-शै का क्या कहें
पलक से गिरते हुए टेसुओ से
मिलती है फ़लक-अलक-शबनम
देख मिलन अब याद आती है
इंतजार-बरखा-मौसम मिलन तेरा
इश्क-जलती चिता – ठंडा होना
और अहसास-गुलाब का खिलना
दिल-मासूम का बच्चे सा रोना
लिपटकर छाती- सिमटकर सोना
आज फिर तन्हाइयां शोर मचाती
निगाहे देती नही तुम्हारा पता
अब आंख से गिरे ना गुहर कोई
वो तेरी अलकों से गिरे ओंस-बूंदे
झटककर गेसू जब तुम अपने तो
मेरे मुख बिन मौसम बरसात आई
आज फिर देख फ़लक-घन फिर
तेरी इस क़दर जो याद आयी है
अर्शे से तूं जो दिल में समायी है
बेपनाह मुकर्रर करले ख़ुदा मुझको
तो अपनी पनाह में ले लूं तुझको
इश्क में नफ़ासत है कहां मुमकिन
कायनाते-इश्क सिखाया नहीं जाता
यूं इश्क में मायूस होकर ‘मधुप’
अब रोज मयखाने जाया नहीं जाता
अफ़साना फ़लक से गिरती हुई
उस शबनमी – शै का क्या कहें ।।
?मधुप बैरागी