अहसास नाजुक सा
खुबसुरत अहसास*
**
जाना तो चाहता हूँ मै भी।
कब रुकना चाहता हूँ।
अतिथि हूँ ,
तो ठहर भी कैसे सकता हूँ?
पर मेरे पानी का मोल ही क्या?
निकलता हूँ ,
अश्रु बनकर तो भीगी पलकें,
तुम्हारी रोक लेती है।
जिद से निकल भी जाऊं ,
तो कहाँ बढ़ने देते आगे ,
तुम्हारे पिंगलवर्णी कपोल।
सोख लेते है मुझे।
खुद हैरान हूँ ,
परेशान हूँ।
जा भी नही पाता हूँ,
और तुम रुकने भी नही देती।
तुम तो हो गई हो ना स्थिर,
मेरा क्या ?
चंचल हूँ पर चंचलता नदारद।
न जाने क्यों उलझकर रह गई ,
तुम में ही मेरी चंचलता।
तुम्हे माना मीठी ठीस देता हूँ।
पर आदत हो गई है न।
मेरी तुमारे साथ रहने की ।अब निकल भी जाऊँगा ,
तो याद आऊंगा।
सच मिट कर भी ,
तुम्हारे लिए नही मिट पाऊंगा।
मत सम्भालो लो ना मुझे।
जाने तो दो ,
नैन नेह की डोर से ,क्यों जकड़ रखा है?
जाने दो ना……।
कब रोका है मैंने
अतिथियों को कोई
रोकता है भला।
और क्या रोकने से
रुक जाते है वो
हमेशा के लिए…
हाँ जाते हो तो
आँख भर आती है।
इसका हम क्या करें.
पता नही क्यों
पलके नही निकलने
देना चाहती
तुम्हे बाहर ..
और तुम हो ना
जिद पर अड़े हो
जबरन निकलते हो
तो क्या करें
नर्म पलको की
भावनाए छिल जाती है।
और टप टप गिरती है
बाबू ,पर तुम फिकर न करो।
इनका तो काम ही रोना है।
तुम आये थे तब भी …
और अब भी…
*******मधु गौतम