दबाव नही रक्खा
कब जले कब बुझे कुछ याद नही रक्खा
हमनें चरागों पर कभी दबाव नहीं रक्खा
अपनी हैसियत में जिंदगी गुजर बसर की
अनमोल चीजों पर अपना हाथ नहीं रक्खा
वो गुजरा जरूर बिल्कुल करीब से मेरे
मगर उसने भी कब्र पे गुलाब नहीं रक्खा
बेतरतीब खर्च किया दिल के खजाने को
कहाँ कितना खर्च किया हिसाब नहीं रक्खा
और यूहीं मोहब्बत परवाज कर गईं ‘आलम’
मैंने कोई जबाब उसने कोई सवाल नहीं रक्खा
मारूफ आलम