अहं
अहं
जब जब सोचा
पा ली है विजय मैंने
अपने अहं पर
पता नहीं क्यों
जरा- सी-ठोकर लगने पर
फिर किसी गहराई से
फुफकार उठता है अहं
कितना भी दुतकारो
नाचता है बार बार
मन की आंखों के आगे
चिड़ाता है, सताता है
जानलेवा ताप-सा
चिंता के संताप-सा
कई बार तलवार-सा
हृदय में चुभ
जहर-सा फैल जाता है
अमृत का पात्र
फटकने नहीं देता पास
मन की अशान्ति का
उदधि बन जाता है
क्या कोई समझ सका
अहं की माया का आर-पार?
जो किसी संजीवनी की
नाव पर हो सवार
अहं को ले साध?