अहंकार
अच्छे-बुरे में निरंतर होती लड़ाई, हमको केवल यही सीख देती है।
नियति से हम जो कुछ छीनें, वो उससे भी बढ़कर वापिस लेती है।
कोई भी कुछ संग न ले जाए, ईश्वरीय सत्ता सर्वस्व निचोड़ देती है।
अहंकार से बने शीशमहल को, अंततः ये अहंकार ही तोड़ देता है।
अब असुर जाति की बात करें, तो उसमें हमें बस दिखता है घमंड।
जब उनके कुल का अंत हुआ, प्राण गए पाताल, छूट गया भूखंड।
समय व ईश्वर दोनों का न्याय, अहम-वहम की गर्दन मरोड़ देता है।
अहंकार से बने शीशमहल को, अंततः ये अहंकार ही तोड़ देता है।
त्रेता के समय तो लंकाधीश को, अपने धन-बल पे बड़ा गुमान था।
उसे मिले ये वर, रहे अजर-अमर, उसके मन में यही अभिमान था।
ईश्वर भी ऐसे अधर्मी के रथ को, पश्चाताप के पथ पर मोड़ देता है।
अहंकार से बने शीशमहल को, अंततः ये अहंकार ही तोड़ देता है।
द्वापर में देखा कंस का क्रोध, श्री कृष्ण के जन्म का किया विरोध।
बहन की संतानों को मारकर, उस पापी ने सींची थी पाप की पौध।
पाप के छलकते हुए घड़ों को, ईश्वर तो इशारे से उसे फोड़ देता है।
अहंकार से बने शीशमहल को, अंततः ये अहंकार ही तोड़ देता है।
बुराई का प्रभाव शुरू होते ही, पहले लगे बहुत से लोगों का मेला।
बाद में उसका फल पाते ही, संग छूट जाता, पापी भुगते अकेला।
बुराई की दुर्गति को देखकर, पापी भी पाप का साथ छोड़ देता है।
अहंकार से बने शीशमहल को, अंततः ये अहंकार ही तोड़ देता है।