अश्रु
अश्रु ढ़रक आते हैं
अनायास ही
नेत्रों से
अंजन को
क्षालन के लिए
या
उर के
कुंज में छिपी
दारूण वेदना को
मुख़्तसर
करने के लिए।
विनोद की
अतिशयता भी
अक्षुनीर की
निमित्त बनती है
हिमगिरि के
आगार की तरह
और
बुहार कर
ले जाती है
अंतस की
छिछली
पीड़ा को
अपने साथ
सुदूर
सघन कानन में।