अश्रु नभ को समर्पित करना !
अश्रु नभ को समर्पित करना !
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घनीभूत घोर घटाएं छाए नील गगन में,
फटे हृदय अविचल हिमगिरि की कम्पन में,
विघटन से छिन्न-भिन्न विकल धरा आज डोले,
प्रलय के आंसू वृहद निस्सीम व्योम रो ले !
असह्य दु:ख की सिहरन हो विरह वेदना, दुर्निवार बयार पले ;
श्वासों से स्वप्न पराग झरे, पलकों में निर्झरणी मचले ।
दशों दिशाओं में प्रज्जवलित रवि होना चाहे अस्त;
दुर्निवार तूफानों में ,रण में , भी हो पग-पग पर पथ प्रशस्त !
रोष की भ्रू-भंगिमा विराट, डोले विस्मित प्रलय खोले,
उत्तिष्ठ अजेय ! विद्युत-शिखाओं में निठुर तूफान बोले ?
धीर-वीर ,अंगार-शय्या पर मृदुल-कलियां बिछाना ,
ले उर वज्र का, क्षणिक अश्रु-कणिकाओं में नहीं गिराना ।
क्षितिज-भृकुटि पर घिर-धूमिल युग-युग का विषय जनित विषाद,
गुंजित कर दे मही-व्योम, भर दे जग के अंतस् में आत्म निनाद !
दिव्य चेतना प्रकाश बरसाकर,
आत्म एकता में अनिमेष जगाकर ,
स्वाधीन भूमि ,प्रज्जवलित भूमि की नव्य जागरण लाओ,
बिखरे मन के तम् को कर कुंठित,
अंत: सोपानों में उर्ध्व चढ़ाओ।
मधुर हास-परिहास पलकों से पता अपना हटाकर,
पतझड़ कंटकारी क्षणिकाओं में व्यथा अपनी छुपाकर,
गहन तम् में घिरी चिन्तन भार सार अर्पित करना ;
अश्रु उस नभ को समर्पित करना !
✍? आलोक पाण्डेय ‘विश्वबन्धु’
अश्विन शुक्ल सप्तमी