अशोक दर्द की कविताएँ
अग्निगीत
तुम लिखो उनके खिलाफ अग्निगीत
जिन्हें देश को गलियाँ बकने के बदले
जनता की गाढ़ी कमाई की बरियानी
खिलाई जाती है
देश तोड़ने की धमकियां देने के बावजूद भी
कोठी कार और सुरक्षा मुहैया करवाई जाती है
तुम लिखो उनके खिलाफ अग्निगीत
जिनके खुद के बच्चे तो विदेशों में पढ़ते हैं
और दूसरों के मासूम हाथों से किताबें छुड़ा
हथियार पकड़ा रहे हैं
तुम लिखो उनके खिलाफ अग्निगीत
जो मुल्क की उड़ान में बधिकों की भूमिका
निभा रहे हैं
और उगती हुई कोंपलें तोड़ने में लगे हैं
और फैलते हुए परों को मरोड़ने में लगे हैं
तुम लिखो उनके खिलाफ अग्निगीत
जिनकी हवाई यात्राएं आम आदमी की
पीठ पर होती हैं
तुम लिखो उनके खिलाफ अग्निगीत
जो रिश्तों की उर्वरा जमीन को बंजर बनाने पर
तुले हुए हैं
और जलते हुए दीये बुझाने और
फूलों को खंजर बनाने पर तुले हुए हैं
तुम लिखो उनके खिलाफ अग्निगीत
जो प्रेम की अनुपम बगिया उजाड़ कर
नागफनियाँ उगाने में व्यस्त हैं
और सूरज के खिलाफ अंधेरों संग साजिशें
रचने के अभ्यस्त हैं
तुम लिखो उनके खिलाफ अग्निगीत
अपनी कलम की सार्थकता के लिए और
विडम्बनाओं के खात्मे के लिए ……||
अशोक दर्द प्रवास कुटीर ,गाँव व डाकघर ,बनीखेत जिला चंबा हिमाचल प्रदेश १७६३०३
आज निकला मेरा कल निकला
आज निकला मेरा कल निकला |
सिलसिला जिन्दगी का चल निकला ||
समझा था बहते हुए झरने जिनको |
पड़ा वास्ता तो दलदल निकला ||
बेवफा प्यार का वो सच सुनकर |
सुलगता सीना मेरा जल निकला ||
लोग कहते थे खोटा सिक्का जिसको |
दौरे मुश्किल का संबल निकला ||
मुद्दतों उलझे रहे खुशियों के सवालों पर |
ख्वाहिशें छोड़ीं तो हल निकला ||
दोस्त बचपन के क्या मिले |
बूढ़ा बच्चों सा मचल निकला ||
सारी उम्र पे पड़ गया भारी |
खुशियों भरा जो पल निकला ||
डूब गये नापने की जिद्द वाले |
दर्द दिल का अतल निकला ||
इक बीज परिंदे की चोंच से गिरकर |
वक्त बीता तो फूल फल निकला ||
आस्तीन में सांप पालना
आस्तीन में सांप पालना विष निकाल कर |
करना न इतवार कभी दुश्मन की चाल पर ||
बाधा तो सफर ए जिन्दगी हिस्सा है बशर |
रस्ते निकल आयेंगे देखना निकाल कर ||
पत्थर के लोग हैं यहाँ नफरत का शहर है |
यह गठड़ी मुहब्बतों की रखना सम्भाल कर ||
दूर तलक देखना यह तल्ख़ जिन्दगी |
करना न दिल के फैसले सिक्के उछाल कर ||
सरे राह मारा जायेगा या कुचला जायेगा |
सत्ता नाराज करना न तीखे सवाल कर ||
बंजरों में बीजना हरियालियाँ सदा |
पतझड़ में खिलें फूल तू ऐसा कमाल कर ||
भागदौड़ जिन्दगी की कहाँ खत्म होती है |
अपनों से मिला कीजिये कुछ पल निकाल कर ||
निर्मल थे कल जो झरने जहरीले हो गये |
दर्द पानी पीजिये थोड़ा उबाल कर ||
रिश्ते हुए छालों के जो दर्द सहते हैं |
लाते हैं वो ही मोती सागर खंगाल कर ||
मुह्हबत की खुशबुओं के जो हिमायती नहीं |
यूं न व्यर्थ उनपे फैंका गुलाल कर ||
अशोक दर्द
कब तक
कब तक तुम पतझड़ को यूं बहार लिखाओगे |
नफरत की इबारत को तुम प्यार लिखाओगे ||
आश्वासन की भूल भुलैया में उलझाकर तुम |
कितने लोगों को मूर्ख सरकार बनाओगे ||
छेड़ छेड़ कर जाति भाषा मजहब के झगड़े |
कब तक जनता के दिल में ये खार उगाओगे ||
पार लगाने के भरम में लोगों को ठगकर |
कितनी नावें जाकर यूं मंझधार डुबाओगे ||
प्यास बुझाने के झूठे ये स्वप्न दिखाकर तुम |
मृगतृष्णा में रेत के सागर पार ले जाओगे ||
कब तक तुम इस पीढ़ी के यूं भूखे कदमों को |
तकथैया थैया गा गा करके सरकार नचाओगे ||
देश सेवा का ओढ़ मुखौटा कब तक इसे तुम |
नफरत की हवाओं से अंगार जलाओगे ||
पढ़े लिखे हाथों में डाल बेकारी की बेड़ी |
कब तक झूठे सपनों का संसार दिखाओगे ||
सब्सिडी का देकर चस्का निठल्ले लोगों को |
कब तक लेकर दुनिया से उधार खिलाओगे ||
भैंस के आगे बीन बजाने की जिद्द में ऐ दिल |
कितनी नज्में ऐसे यूं बेकार सुनाओगे ||
अशोक दर्द
बेटी
धरती का श्रृंगार है बेटी |
कुदरत का उपहार है बेटी ||
रंग-बिरंगे मौसम बेशक |
जैसे ऋतू बहार है बेटी ||
कहीं शारदा कहीं रणचंडी |
चिड़ियों की उदार है बेटी ||
दो कुलों की शान इसी से |
प्रेम का इक संसार है बेटी ||
इस बिन सृजन न हो पायेगा |
धरती का विस्तार है बेटी ||
बेटी बिन जग बेदम-नीरस |
जग में सरस फुहार है बेटी ||
मधुर-मधुर एहसास है बेटी |
पूर्णता-परिवार है बेटी ||
धरती का स्पन्दन है यह |
ईश-रूप साकार है बेटी ||
बेटे का मोह त्यागो प्यारे |
नूतन-सृजन-नुहार है बेटी ||
कुल की शान बढ़ाये बेटी |
मत समझो कि बहार है बेटी ||
दिल की बातें दर्द सुनाये |
अपने तो सरकार है बेटी ||
अन्नदाता
भरी दुपहरी में झुलसाती धूप के नीचे
कंधे पर केई उठाकर
चल देता है खेतों की ओर मौन तपस्वी |
जाड़े की ठिठुरती रातों में
अब भी करता है रखवाली
होरी बनकर अपनी फसलों की नील गायों से |
आज भी उजड़ जाते हैं उसके खेत
समय बदला मगर
उसके लिए कुछ नहीं बदला |
महंगी फीस न भर पाने की विडम्बना
झेलती है उसकी संतति और देखती है पसरी चकाचौंध
बेबस लाचार होकर |
उसकी मेहनत और बाजार का व्याकरण
कभी तालमेल नहीं बैठायेगावह बखूबी जानता है
उसके हक की आवाज कोई नहीं उठाएगा |
वह अपनी लूट का सच महसूसता है
फिर भी अपने अन्नदाता होने का फर्ज
निभाता है वचनबद्ध होकर |
वह कभी हडताल नहीं करता बेशक ऋण का बोझ
उसे कुचल ही क्यों न दे अपने पैरों तले |
जिस दिन वह हडताल करेगा
खेत में बीज नहीं बोयेगा उस दिन
भूखे पेट अन्नदाता की कीमत पहचानेगा और रोयेगा ||
नये दौर की कहानी [ कविता ]
जहरीली हवा घुटती जिंदगानी दोस्तों |
यही है नये दौर की कहानी दोस्तों ||
पर्वतों पे देखो कितने बाँध बन गये |
जवां नदी की गुम हुई रवानी दोस्तों ||
विज्ञानं की तरक्कियों ने चिड़ियाँ मार दीं |
अब भोर चहकती नहीं सुहानी दोस्तों ||
कुदरत के कहर बढ़ गये हैं आज उतने ही |
जितनी बढ़ी लोगों की मनमानी दोस्तों ||
पेड़ थे परिंदे थे झरते हुए झरने |
किताबों में रह जाएगी कहानी दोस्तों ||
हर रिश्ता खरीदा यहाँ सिक्कों की खनक ने |
कहीं मिलते नहीं रिश्ते अब रूहानी दोस्तों ||
अँधेरा ही अँधेरा है झोंपड में देखिये |
रौशन हैं महल मस्त राजा – रानी दोस्तों ||
सरे राह कांटे की तरह तुम कुचले जाओगे |
कहने की सच अगर तुमने ठानी दोस्तों ||
भर रहे सिकंदर तिजोरियां अपनी |
दर्द लाख कहे दुनिया फानी दोस्तों ||
अशोक दर्द
नूर उसका ….
जमाने भर में देखा है हमने नूर उसका तो |
जमीं के पास भी उसका फलक से दूर उसका तो ||
जमाने की हरेक शय में वही तो टिमटिमाता है |
नहीं दिखता तो तुम जानो नहीं है कसूर उसका तो ||
उसी ने ही बनाई है गुलों की यह हसीं बगिया |
गुलों के रंग भी उसके महक में सरूर उसका तो ||
बहारें भी उसी की हैं खिजां का दर्द उसका है |
शज़र के आम उसके ही शज़र का बूर उसका तो ||
यह दौलत भी उसी की है यह शोहरत भी उसी की है |
है गुमनाम यह दुनिया नाम मशहूर उसका तो |
रज़ा में उसकी राज़ी रहना ऐ जगवालों कहता हूँ |
उसे कोई टाल न पाया जो है दस्तूर उसका तो ||
लिखाता है वही नज्में बनाता है वही धुन भी |
मेरा वही एक मालिक है दर्द मजदूर उसका तो ||
विजय मुफ्त में नहीं मिलती है
विजय मुफ्त में नहीं मिलती है मोल चुकाना पड़ता है |
काँटों की सेज पे अपना बिस्तर यार बिछाना पड़ता है ||
निशिदिन टकराना पड़ता है तूफानी झंझावातों से |
पल –पल लड़ना पड़ता है अंधियारी काली रातों से ||
विपरीत हवाओं के रुख में भी दीप जलाना पड़ता है |
विजय मुफ्त में नहीं मिलती है मोल चुकाना पड़ता है ||
कदम – कदम पे पड़े जूझना जाहिल और मक्कारों से |
कदम – कदम पे पड़े खेलना जलते हुए अंगारों से ||
संघर्षों की धरती पे अपना नाम लिखाना पड़ता है |
विजय मुफ्त में नहीं मिलती है मोल चुकाना पड़ता है ||
खुद ही पोंछने पड़ते हैं लुढके आंसू गालों के |
खुद ही सहलाने पड़ते हैं रिसते घाव ये छालों के ||
विचलित होते मन को अपने खुद समझाना पड़ता है |
विजय मुफ्त में नहीं मिलती है मोल चुकाना पड़ता है ||
सबसे ऊँचा दुनिया में निज झंडा फहराने को |
स्पर्श क्षितिज का करने को गीत विजय के गाने को ||
ऊँचे पर्वत की छोटी तक अनथक जाना पड़ता है |
विजय मुफ्त में नहीं मिलती है मोल चुकाना पड़ता है ||
बाधाओं की गहरी खाइयाँ मीलों भंवर के फेरे हैं |
कदम – कदम पे जिधर भी देखो तूफानों के घेरे हैं ||
बीच भंवर से कश्ती को खुद बाहर लाना पड़ता है |
विजय मुफ्त में नहीं मिलती है मोल चुकाना पड़ता है ||
सुख –चैन प्यारे त्याग- त्यागकर रात- रात भर जाग- जागकर |
अवरोधों के कांटे चुनकर समय से आगे भाग – भागकर ||
स्वेदकणों से सपनों का मानचित्र बनाना पड़ता है |
विजय मुफ्त में नहीं मिलती है मोल चुकाना पड़ता है ||
जाल बिछाए बैठे हैं बधिक बहुत जमाने में |
कभी साथ नहीं आता है किसी को कोई छुड़ाने में ||
जाल तोड़कर स्वयम को यारो स्वयं उडाना पड़ता है |
विजय मुफ्त में नहीं मिलती है मोल चुकाना पड़ता है ||
शह – मात का खेल खेलने कई बिसात बिछाए बैठे हैं |
लेकर तीर कमान हाथ में घात लगाये बैठे हैं ||
शतरंजी चालों से दर्द स्वयं को स्वयं बचाना पड़ता है |
विजय मुफ्त में नहीं मिलती है मोल चुकाना पड़ता है ||
अशोक दर्द [बेटी डा. शबनम ठाकुर के साथ-साथ दुनिया की तमाम बेटियों के लिए ]