**अशुद्ध अछूत – नारी **
डा . अरुण कुमार शास्त्री एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
अशुद्ध नारी
वंचित रखा मुझको
जिन खास दिनो की खातिर
वो खास नही थे दिन
बस तेरी मलिन सोच का हिस्सा थे
जिन खून के धब्बों को तुने
अपयश के संज्ञान दिए
मुझको माना अछूत और
अपनी विकृत बुद्धि के प्रमाण दिए
सब दोष नही तेरा है
ये मैने माना है फिर भी पुरुष था तु
तूने कैसे इन भावों को समर्थन थे दिए
तू शिक्षक है अधिवक्ता है
तू इनसे ऊपर एक चिकित्सक है
फिर कैसे तूने रुढीवादी कुत्सित
विचारों को सम्मान दिए
वंचित रखा मुझको
जिन खास दिनो की खातिर
वो खास नही थे दिन
बस तेरी मलिन सोच का हिस्सा थे
जिन खून के धब्बों को तुने
अपयश के संज्ञान दिए
मुझको माना अछूत और
अपनी विकृत बुद्धि के प्रमाण दिए
कैसे क्युं कर मुझे अशुद्ध कहा
कैसे क्युकर वंचित रखा
एक अन्धेरे कमरे में
क्यु कैद कर मुझे रक्खा
जितने भी घर में अनुष्ठान हुए
मैं नारी हुँ मैं नारी हुँ
मुझको हर माह , महा वारी होगी
जिसके चलते तेरे वंश की
मेरी कोख में प्रस्फुटन
और रखवाली होगी
इसी सुरक्षित आख्या में फिर
उसकी सृजन समीक्षा होगी
मैं जिसके कारण माता कहलाऊँगी
वंचित रखा मुझको
जिन खास दिनो की खातिर
वो खास नही थे दिन
बस तेरी मलिन सोच का हिस्सा थे
जिन खून के धब्बों को तुने
अपयश के संज्ञान दिए
मुझको माना अछूत और
अपनी विकृत बुद्धि के प्रमाण दिए