अशांति
अशांति – पंकज त्रिवेदी
तुम्हारा इंतज़ार करना अब नया तो नहीं है
बरामदे में झूले पे झूलती हुई मैं
शहर से आती उस सड़क को देखती रहती हूँ
जबतक तुम नहीं आते हो तबतक
घर के कामों में अपना मन लगाने के लिये
हर काम में तुम्हें भी जोड़ देती हूँ…
जैसे कि –
जब तुम यहाँ होते हो तब सुबह जागते ही
तुम्हें चाय मिलनी चाहिए.. अगर देर हो गई तो
तुम्हारा गुस्सा भड़क जाता है और चाय भरे उस कप को
उठाकर तुम फेंक देते हो…
तुम्हारे आने की खुशी में मैं जब भी कुछ
पसंदीदा खाना बनाकर तुम्हें खिलाना चाहूँ…
तुम्हारे ही खयालों में खोई सी
कुछ न कुछ थोडा सा जला दूं तो
परोसी हुई थाली को ठोकर मारकर तुम चले जाते
अपने दोस्तों के साथ और इतने दिनों बाद तुम मेरे लिये
गाँव में लौटते तो लगता मेरा इंतज़ार खत्म हो गया
मगर तुम अपने पुराने दोस्तों के साथ
सारी रात बिता देते और मैं करवटें बदलती हुई जागती
इंतज़ार में सुलगती सी बरामदे में झूले पर बैठ जाती
शांत रात्रि में झूले की कीचूड कीचूड आवाज़ मानों
पूरे वातावरण को अशांति में धकेल देती ….