अव्यक्त प्रेम (कविता)
अव्यक्त प्रेम
प्रेम का रूप तो प्रेम का रूप तो रहा सदैव अव्यक्त
कब कौन कर पाया है इसको व्यक्त
प्रेम तो रहा अमूर्त
फिर क्यों इसे आकर देना
कशिश है ये ख़लिश है ये
एक एहसास है यह एक तड़प है ये
जो जेहन में कैद
एक सुखद अनुभूति
का एहसास है ये
ना पिरो पाया कोई शब्दों में इसको
शब्द कहां जो व्यक्त करें भला इसे
ना प्रेम रूप है ना प्रेम का स्वरूप है
भला कौन शब्दों में बांध पाया है
धरती के कन-कन में समाया है
राधा के संग कृष्ण नाम का यूं ही नहीं आया है
दिलों में जलता हुआ एक दीप जैसा ये लगातार जलता रहा है सदियों से
तभी तो मीरा ने इसको गया है
प्रेम तो इबादत है उस ख़ुदा कि
जो धड़कन दिलों को सिखाता है