अविश्वास की बेड़ियां
कितनी कमी हो गई है विश्वास की
जहां भी जाओ बात होती है इंतकाम की
उसने मुझसे कहा और मैं मान गया
ये बात तो हो गई है आज गुमनाम सी
क्यों ये विश्वास टूट रहा है
क्यों इंसान इंसान से दूर हो रहा है
नहीं जानता वो खुद भी, लेकिन
खुद को ज्ञानी वो ज़रूर कह रहा है
सब में दिखता है अपना प्रतिद्वंदी उसको
है मंज़िल पर पहुंचने की जल्दी उसको
क्यों नहीं वो इतनी सी बात समझता
अकेले ऊंचाई पर लगेगी सर्दी उसको
औरों पर क्या करेगा वो विश्वास
खुद पर ही नहीं है विश्वास उसको
खुद किसी से वफा करता नहीं
औरों से है वफा की आस उसको
अविश्वास ही अधीर बना रहा है उसे
जो हर चीज़ की जल्दी लगी है उसे
कहीं खिसक न जाए कुर्सी उसकी
बस इसी बात की फिकर लगी है उसे
हो नहीं खुद पर भरोसा अगर
तभी दूसरों पर अविश्वास करते हैं हम
होता नहीं ये अविश्वास कभी हमें
अपने सामर्थ्य पर भरोसा जो करते हम
खोखले हो गए है मूल्य आज
बस कहने भर के लिए रह गए हैं
है चारों तरफ भीड़ ने घेरा हुआ
फिर भी हम अकेले रह गए हैं
तोड़ दो ये अविश्वास की बेड़ियां
भर दो मन में विश्वास फिर से तुम
कोई रोक नहीं पायेगा ये उड़ान तुम्हारी
एक बार करके देख लो विश्वास तुम।