अविकसित अपनी सोच को
संसार के विषय-भोगो से,
मन विरक्त करो थोड़ा ॥
आत्मा के सुख का भी,
कुछ प्रबन्ध करो थोड़ा ।।
तुझमें मुझमें इसमें उसमें
, सब में उसका वास है ।
अविकसित अपनी सोच को,
विकसित करो थोड़ा ।।
सम्बन्धों की जीवंतता में,
मैं, का त्याग करो थोड़ा ।
जीभ पर अपनी मिश्री-मिश्रित
स्वाद धरो थोड़ा ।।
जीवन पथ का न हो,
मार्ग फ़िर अवरूद्ध ।
ज्ञान की प्रत्येक बात
पर जो ध्यान करो थोड़ा ॥।
डाॅ फौज़िया नसीम शाद