*अलफ़ाज़ मिरे*
डॉ अरुण कुमार शास्त्री -एक अबोध बालक -अरुण अतृप्त
अलफ़ाज़ मिरे
ग़ज़ल कहिये या के नज़्म कहिये
मिरे अल्फ़ाज़ हैं ये तो महज़ साहिब
इनको बस अपनी ज़ुबान से कहिये ।।
गुनगुनायेंगे इनको तो ये फूल बन जाएंगे
हर्फ़ ब हर्फ़ ये आपकी तन्हाई में
कसम से आपके महबूब को गुदगुदाएंगे ।।
महफ़िल में रहिये या फिर अकेले में
बागबां में हों या फिर सहरा में
ये तो फूल हैं आपको हर जगह मह्कायेंगे ।।
नाम देकर इन्हे मेरा रुसबा कीजिये
ये आपके हैं इन्हें आप अपना लीजिये
याद मेरी जब आये तो मुस्कुरा दीजिये।।
आपको देख कर मुस्कुराता हुआ मुझे
मेरे मेहबूब की याद आती है , रौशनी चाँद की
जैसे मिरे आँगन में उतर आती है ।।
वक्त था एक वो भी के हम साथ साथ थे
उसके नाज़ुक मखमली हाँथ मिरे हाँथ में थे
फिर ज़लज़ला आया और हम बरबाद थे ।।
खुदा किसी को ऐसी जुदाई न दे कभी
जुदाई दे भी तो फिर दुनिया से रिहाई भी दे
यूँ दर्द देकर खुदाया कभी तकलीफ न दे ।। .
ग़ज़ल कहिये या के नज़्म कहिये
मिरे अल्फ़ाज़ हैं ये तो महज़ साहिब
इनको बस अपनी ज़ुबान से कहिये ।।