” अलबेले से गाँव है “
गीत
नित्य मनोरम झाँकी सजती ,
अलबेले से गाँव हैं !
सुविधाओं से वंचित अब भी ,
दिखते नंगे पाँव हैं !!
सुबह सुबह की यहाँ जाग है ,
पशु भरे किलकारी है !
जुटे खेत में सब दिखते हैं ,
परिश्रमी नर नारी है !
कनक सरीखी देह तपे है ,
दूर खड़ी जो छाँव है !!
बल खाती पगडंडी अब भी ,
खेतों तक है छोड़ती !
उड़ती धूल सुहानी लगती ,
माटी से मन जोड़ती !
सुबह शाम मेढ़ों पर अब भी ,
होती कलरव , काँव है !!
हरियाली में तन झूमे है ,
अधरों पर भी गीत है !
चेहरों पर मेहनत चमके ,
भीतर बाहर प्रीत है !
सरल सहज हैं भाव सभी के ,
शतरंजी ना दाँव हैं !!
जो पाया संतोष उसी में ,
दशा ज़रा कमजोर है !
शिक्षा संग बदले रिवाज हैं ,
बदला बदला दौर है !
खपरैलों की छत ना मिलती ,
बदले बदले ठाँव हैं !!
चौपालें अब भी सजती हैं ,
राजनीति सौगात है !
कौन सुने रामायण , आल्हा ,
नई विधा पर बात है !
है सहयोग परस्पर अब भी ,
दिखता नहीं दुराव है !!
स्वरचित / रचियता :
बृज व्यास
शाजापुर ( मध्यप्रदेश )