अलबेला अब्र
अलबेला अब्र
कफ़स भी प्यारा लगने लगा है ।
परिंदा आसमां से डरने लगा है ।।
साया ख़ुद का.. देखकर अब ।
हिरन भी कुलांचे भरने लगा है ।।
मिरे इश्क़ की…… धूप से अब ।
तिरा यौवन…. निखरने लगा है ।।
तुझे संजीदा देखकर अब तो ।
अब्र अलबेला बरसने लगा है ।।
अंजाम की परवाह भूलकर वासिफ़ ।
इज़हार ए इश्क़ करने लगा है ।।
©डॉ वासिफ़ काज़ी , इंदौर
©काज़ी की क़लम
28/3/2, अहिल्या पल्टन, इंदौर