अर्धांगिनी
चुप चाप रो रहा रातो को,
दुःख जो ढो रहा उन बातो पे,
कभी प्रेम गीत जो गाता था,
कोकिल सा कंठ बजाता था,
तन्हाइयों मे नहीं सो रहा है,
मगन गगन तल कभी सोता था।
किसकी प्रीत सुनता था तब,
कैसे आँखों मे नींद आती थी तब,
दिन भर श्रम करता थकान बिना,
मिलने को आतुर रहता ज्यों शाम ढला,
रहती घर मे बन के संसार सदा,
जलाती हृदय मे प्रेम का अद्भुत दीया।
कैसा सूना होता ?
क्यो खो जाती है संगीत सदा,
रूठ जाना आना ना फिर।
होना कितना सुखद है तेरा,
अर्धांगिनी नर के जीवन का,
अंधकार का चाँद है वही।
रात-दिन का संगम जैसे ,
धड़कनो-साँसो का एक लय बने,
कैसे ना तू जीवन के संग जुड़े,
तुझसे ही भव नइया पार होए,
तेरी पतवार से मेरी नाव बढ़े।
रचनाकार –
बुद्ध प्रकाश ,
मौदहा हमीरपुर।