अर्थपुराण
“कहाँ घुसा जा रहा है कंजर? आँखें फूट गई हैं क्या?” पोछा लगाते हुए झबरी के हाथ रुक गए।
“कमबख़्त शक्ल अच्छी नहीं दी भगवान ने, कम-से-कम बातें तो अच्छी किया कर।” मणीराम झल्लाया।
“तू सिखाएगा मुझे तमीज़, नामर्द कहीं का….!” झबरी गुस्से से पोछे को बाल्टी में पटकते हुए चिल्लाई।
“तेरे मायके वालों को तमीज़ है?” कहकर चप्पल वहीँ छोड़ मणीराम कमरे में प्रवेश कर गया।
“मेरे तो भाग फूट गए इस मरदूद से ब्याह करके।” बड़बड़ाते हुए झबरी पुनः पोछा लगाने लगी।
ये कोई नई बात न थी। आये दिन दोनों पति-पत्नी के मध्य इस तरह की नोक-झोंक होती रहती थी। ब्याह का सुख इस सात वर्ष में बासी रोटी की तरह रुखा और बेस्वाद हो चला था। ऐसा नहीं था कि मणीराम कोई तज़ुर्बेकार आदमी नहीं था। झबरी उसकी तीसरी लुगाई थी। पहली दो आर्थिक तंगी के चलते ही भागी थी मगर जीवन के अर्थशास्त्र का गणित मणीराम की समझ से परे था। ऐसा अक्सर होता है कि कर्म का उचित पारितोषिक न मिलने पर, व्यक्ति विशेष के मन में अकर्मण्यता घर कर जाती है। निर्धनता और तिस पर लक्ष्मी जी की अधिकतम रुष्टता ने मणीराम को भी कर्महीनता के पथ पर धकेल दिया था।
झबरी भले ही मुंहफट थी मगर हृदय से सरल स्वभाव की, चरित्रवान-धर्मकर्म वाली महिला थी। भले ही वह अधिक सुन्दर न थी, मगर इतनी कुरूप भी न थी कि देखने वाले को अपनी तरफ़ आकर्षित न कर सके। यदि परिवार की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती तो उस जैसी कोई आदर्श पत्नी न थी। निर्धनता और अभावों ने उसे क्रोधी स्वाभाव का बना दिया था। पता नहीं, वह सुनने वाले पर भड़ास निकालती थी या अपनी फूटी तक़दीर पर उसे क्रोध आता था। इन सात बरसों में तीन बच्चों की माँ बन जाने से भी उसका स्वास्थ्य और सौंदर्य प्रभावित हुआ था। बड़ा बेटा गुणीराम, मंझला चेतराम और छोटा धनीराम — छह, चार और डेढ़ वर्ष के ही थे कि चौथा जीव भी पेट में अंगड़ाई लेने लगा था। परिवार बढ़े या घटे, इससे मणीराम को क्या? फ़क़ीरी में भी वह इन सब पचड़ों से आज़ाद था। घर में बच्चों के साथ सारा दिन झबरी ही खटती रहती थी। शादी के क़रीब तीन-चार बरस के बाद जाके कहीं एक अच्छी-सी प्राइवेट कंपनी में जमादार की नौकरी मिली थी मणीराम को, किन्तु अब इस नौकरी के भी छूट जाने का भय बना हुआ था क्योंकि नशाखोरी के चलते मणीराम की पहले भी कई नौकरियां छूट चुकी थीं।
नशा भी बाप-रे-बाप! पान-तम्बाकू, बीड़ी-सिगरेट की क्या औकात? भांग-चरस, अफ़ीम-गांजा, शराब … जो भी मुफ़्त में मिल जाए मणीराम खाने-पीने से नहीं चूकता था। मुहल्ले के यार-दोस्तों से लेकर दफ़्तर तक के सभी मित्रगण उसे नशा करने और करवाने में सहयोग देते थे। अतः जेब में पैसा हो या न हो मणीराम की सेहत पर कभी कोई फ़र्क़ न पड़ता था। भांग-अफ़ीम-चरस तो उसके पसन्दीदा नशों में एक थे, मगर महंगे होने की वजह से कभी-कभार ही इनके दर्शन होते थे। अलबत्ता, देसी शराब पीकर ही मणीराम का काम चल रहा था। कभी-कभार उसे अपना मनपसंद नशा मिल जाता तो वह इतना कर लेता था कि यदि कोई दूसरा खा-पी ले तो फ़ौरन स्वर्गयात्रा हो जाये, मगर इस जीव पर उस नशे का कोई ख़ास असर न रहता। हद-से-हद वह दो-चार दिन तक दीन-दुनिया से बेख़बर रहता। दारू भी यदि मुफ़्त की मिल जाती, तो इतनी चढ़ा लेता था कि रात किस गटर या नाले में गुज़रेगी? इसका पता मणीराम को भी नशा टूटने पर ही चलता। कुल मिला के कहना ये, कि तंगहाली में भी बरबादी के सौ सामान। दूसरे खाएं या फाके करें, इससे मणीराम को न तो कोई सरोकार था, और न है।
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“ई स्साला भी कोनो ज़िन्दगी है? कोई सुख नहीं। ससुरी झबरी ने तो धोबी का कुकुर बनाये दिया।” साइकिल चलाते हुए मणीराम मन-ही-मन बड़बड़ाया।
टूटी-फूटी खटारा साइकिल को पैदल मारते … घर से दफ़्तर… दफ़्तर से घर… यही ज़िन्दगी होकर रह गई थी मणीराम की। दो वर्षों में ही नई साइकिल ऐसी नज़र आने लगी थी जैसे बाबा आदम के ज़माने में ख़रीदी गई हो। कोई भी पुर्ज़ा अब तक बदला नहीं गया क्योंकि सवार की जेब में पैसा बचे तो मरम्मत हो। वैसे इस वक्त रिपेरिंग की ज़रूरत साइकिल को ही नहीं मणीराम को भी थी। आज पूरे दो दिन होने को आये थे उसे नशा किये! और इस हालत में मणीराम के पेच-पुर्ज़े भी ढ़ंग से काम नहीं कर रहे थे। जी में बेचैनी और घबराहट-सी महसूस कर रहा था वह। जैसे-तैसे बेसुरी बांसुरी की तरह बज रही थी, साइकिल और साइकिल सवार की ज़िन्दगी।
“सत्यनाश!” फुस के साथ जैसे ही अगले टायर की हवा निकली मणीराम के मुंह से सहसा निकला, “हो गई पेंचर ससुरी, चलो, शुक्र है दो क़दम पर ही किसनवा की दुकान है।”
“और किसनवा का हाल है?” दुकान पर पहुँचते ही साइकिल खड़ी करके मणीराम बोला।
“ठीक हैं मणीराम सेठ, तुम सुनाओ।” किसी अन्य ग्राहक की साइकिल ठीक करते हुए किसनवा बोला।
“देख किसनवा हज़ार दफ़ा कह चुके हैं, सौ जूता मार लो ससुर, पर सेठ-साहूकार कहके गाली मत दिया करो।” मणीराम की बात सुनकर किसनवा और उसके बगल में खड़ा अन्य व्यक्ति दोनों हंस पड़े।
“नहीं कहूंगा सरकार! कहिये कैसे ज़हमत उठाई?” किसनवा हँसते हुए ही बोला, “कहीं फिर पेंचर तो नहीं हो गया?”
“तुम्हारी दुकान में कोई भजन-कीर्तन करने तो आएगा नहीं।” मणीराम चिढ़ गया।
“आपसे कई दफ़ा कह चुका हूँ हज़ूर, टायर-ट्यूब चेंज़ क्यों नहीं करवा लेते?” मणीराम की साइकिल पर एक नज़र डालते हुए किसनवा बोला।
“क्यों क्या ख़राबी है?” मणीराम ने अकड़ कर पूछा।
“लो कर लो बात।” साथ खड़े दूसरे ग्राहक की तरफ़ आँखें मटकाते हुए किसनवा बोला, “दस तो टुकड़े डलवा रखे हैं टायर में… फिर ट्यूब भी माशा अल्लाह, हर दूसरे-चौथे दिन में पेंचर हो जाती है, और इस पर ये हज़रत पूछ रहे हैं की ख़राबी क्या है? इस मौके पर ग़ालिब का एक शेर याद आ गया– वो पूछते हैं कि ग़ालिब कौन है? कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या?” किसनवा ने बड़े ही दिलकश अंदाज़ में ग़ालिब का शेर पढ़ा।
“भई वाह!” साथ खड़े दूसरे ग्राहक के मुंह से अनायास निकल पड़ा। जिससे मणीराम और चिढ़ गया।
“फालतू बकवास मत कर किसनवा, नहीं तो दाँत झाड़ दूंगा तेरे, नहीं लगवाना पेंचर तुझसे।” मणीराम के स्वर में गुस्सा और झुंझलाहट साफ़ झलक रही थी। उसने साइकिल पकड़ ली।
“अरे….रे….रे साहब सुनिये तो!” ग्राहक हाथ से निकलता देख किसनवा हाथ जोड़ने लगा।
“अबे पीछे हट।” और मणीराम साइकिल लिए बड़बड़ाते हुए चल दिए, “पता नही, क्या समझते हैं अपने आपको, कोई तोप हैं क्या ? दो कौड़ी की दुकान नहीं है! फुटपाथ क़ब्ज़ाये हुए है हरामी, कारपोरेशन वालों को बोल दिया, तो होश ठिकाने आ जाएँ बच्चू के!”
“अबे ओये! मणीराम के बच्चे, तेरी हवा टाइट कर दूंगा स्साले…,” जो किसनवा अब तक हाथ जोड़े गुहार कर रहा था, यकायक आँखें बड़ी करके दुर्वासा हो गया, “चुपचाप चला जा, वरना जबड़ा तोड के हाथ में धर देंगे,” फिर साथ खड़े ग्राहक की ओर देखकर, “जेब में ढेला नहीं, पता नहीं, भिखारी कहाँ-कहाँ से चले आते हैं, मुंह उठाये पेंचर लगवाने!”
सुनी-अनसुनी करके मणीराम पीछे देखे बग़ैर ही आगे बढ़ता चला गया। उसमे इतना भी सामर्थ्य शेष नहीं था कि पलट के किसनवा को जवाब दे सके।
“आज फिर दफ़्तर पहुंचकर बड़े बाबू की झाड़ सुननी पड़ेगी।” किसनवा की दुकान और उसका ख़्याल जब पीछे छूट गया तो मणीराम अपने आप से ही बोला, “स्साली को कितनी दफ़ा समझाया है कि चार पैसे आदमी की जेब में फालतू रख दे, कहीं रास्ते में पेंचर हो गया, तो कहाँ मारा-मारा फिरे खसम! उसका क्या है, आज मरुँ कल तेरहवीं पे दूसरा कर लेगी। दफ़्तर आ मरेगी, तनखा वाले दिन। सारे पैसे डकार जाती है और मुझे दस-दस रुपये भी रुला-रुला के दिए जाते हैं। छोटी-मोटी ज़रूरतों के लिए भी औरों के आगे हाथ फैलाना पड़ता है! साली लानत है ऐसी ज़िन्दगी पर! थू… इस झबरी की बच्ची से तो चन्द्रमुखी और फुलवा अच्छी थी। कम-से-कम पैसों पर तो डाका न डालती थी और झबरी तो मुंहफट भी है, सो अलग! दोनों बेचारी मुंह तो न लगती थीं।”
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नाले की तरफ़ सुअरों का एक झुण्ड बढ़ा आता था। एक मादा सुअर अपने सात-आठ छोटे-छोटे बच्चों के साथ उस झुण्ड में सबसे पीछे चल रही थी। नाले के आस-पास का स्थान निर्जन था। समीप ही एक पॉश कालोनी की सीमा नाले से बीस-पच्चीस मीटर पूर्व एक ऊँची दीवार द्वारा समाप्त होती थी। दीवार ऊपरी हिस्से की तरफ़ कंटीली तारों की बाड़ बनी थी और कांच के टुकड़े भी लगे हुए थे ताकि कोई भी दीवार फांद कर कालोनी में प्रवेश न कर सके। नाला कोई बीस हाथ लम्बा-चौड़ा था। यहाँ से उसका आरम्भ और अंत दृष्टिगोचर न होता था। दिखाई देता था सिर्फ़ नाले के दोनों छोर पर झाड़ियों और घास का झुरमुट, व दूर-दूर तक वातावरण में छाया एक शून्य, जो बीच-बीच में पंछियों के चहचहाने से भंग होता था।
“धत, तेरी माँ की आँख।” कहकर मणीराम ने सुअरों की फ़ौज पर पत्थर फेंका। सुअरों ने अपना मार्ग बदल दिया। अब नाले के एक टूटे हुए हिस्से से वे सब नाले में उतरने लगे। जल स्तर काफ़ी काम था। अतः कुछ ही देर बाद सुअर के बच्चे भी उस कीचड़ में अठखेलियां करने लगे।
“उस्ताद, आज सारा दिन कहाँ गायब रहे, दफ़्तर नहीं आये?” मंगतू ने ललचाई निगाहों से नमकीन और शराब की थैली को देखा और लार टपकाते हुए कहा, “घीसू के यहाँ क्या कर रहे थे?”
“अबे मंगतू, आज का दिन ही ख़राब निकला। दफ़्तर आ रहा था कि पेंचर हो गया और जेब में एक ढेला भी नहीं था।” मणीराम ने एक ओर थूकते हुए कहा।
“उस्ताद फिर ये माल-पानी!” शराब की थैलियों और नमकीन के पैकेट को देखकर मंगतू पुनः लार टपकाने लगा।
“अबे ढक्कन, पहले पूरी बात सुन लिया कर! बीच में बड़बड़ाता रहता है!” मंगतू के बीच में बोलने पर मणीराम झल्लाया, “पैंचर लगवाने के लिए उस हरामी दगड़ू से पैसे मांगे, तो लगा खसम, अपनी दस कहानियां सुनाने!”
“अच्छा तो फिर?”
“फिर क्या, मैं भी कहाँ छोड़ने वाला था? स्साले के हाथ जोड़े, माथा टेका, नाक रगड़ी, सौ क़समें खाईं, तब कहीं जाके स्साला नौटंकी, सौ का पत्ता ढीला किया। वहां से निकला तो रास्ते में घीसू मिल गया। बस, दिनभर उसके यहाँ ताश खेलते रहे। स्साला घीसू छोड़ ही नहीं रहा था हमको कि तुम आ गए और उसके बाद की कहानी तो तुम्हें पता ही है कि ठेके में गए और ये माल-पानी।”
“तभी तो मैं सोचूं, आज तुम दोनों दफ़्तर क्यों न आये?” मंगतू ने हँसते हुए कहा, “अच्छा उस्ताद क्या सही बात है? घीसू की लुगाई रामकली धन्धा भी करती है।”
“अबे तभी तो मज़े में है घीसू! क्या ठाठ हैं उसके!” मणीराम ने शराब की थैली को हाथों में उछाला, जैसे वजन तोल रहा हो।
“उस्ताद अब सब्र नहीं हो रहा। खोल भी डालो ये लालपरी, पहली धार की!” मंगतू लार टपकाते हुए बोला।
“ले पकड़, ये अपनी लालपरी।” कहकर मणीराम ने एक थैली मंगतू की तरफ़ फेंकी। वह थैली पर ऐसे झपटा जैसे जन्म-जन्म का भूखा अन्न पर झपटता है। दूसरी थैली का मुंह फाड़ते हुए मणीराम बोला, “और ये मेरी लालपरी!”
दो घूंट पीने के बाद मंगतू ने नमकीन का पैकेट फाड़ा और नमकीन खाने लगा। जबकि मणीराम ने गटागट … एक ही साँस में पूरी थैली शराब हलक के नीचे उतार दी, “ससुरी ख़त्म हो गई!” कहकर मणीराम ने खाली थैली एक तरफ़ फेंकी, तो देखा कि मंगतू ने पूरे मुंह में नमकीन ठूस रखी है और खाने में उसे दिक्कत हो रही है।
“अबे सारी नमकीन ख़ुद ही खा जायेगा या कुछ अपने बाप के लिए भी छोड़ेगा!” कहकर मणीराम ने नमकीन का पैकेट अपने क़ब्ज़े में कर लिया।
“क्या करें मणी भाई, अपुन को तो पीने के बाद खाने को कुछ चाहिए।” नमकीन चबाते हुए मंगतू ने मदमस्त होकर कहा, “मीट की बोटी होती तो मज़ा ही आ जाता।”
“तेरी लुगाई जो बैठी है यहाँ, पकाने को! स्साला, मीट की बोटी खायेगा!” मणीराम ने नमकीन हथेली पर गिराते हुए कहा, “अबे थैली के पैसे हैं नहीं कंगले के पास, और बात करता है, मीट की बोटी होती तो… जाके नाले में सुअर को ही कच्चा चबा डाल।”
खी…खी… करके बन्दर की माफिक हंस दिया मंगतू।
“अब दांत क्या फाड़ रहा है, सारा नशा हिरन कर दिया, बेकार की बातें करके। ला फाड़ दूसरी लालपरी, पहली धार की।” मणीराम ने बिगड़ते हुए कहा और दूसरी थैली पीने लगा।
“यार मणीराम, कई बार कोठी-कार वालों को देखकर मैं सोचता हूँ, हम ग़रीबी के इस नर्क में क्यों पड़े हैं? आख़िर भगवान ने हमारे साथ इतना बड़ा अन्याय क्यों किया?” मंगतू को नशा चढ़ने लगा था।
“अबे इसे नरक कहता है। ज़िन्दगी का असली स्वर्ग तो हम लोगों का ही है। इसके मज़े तो ग़रीब आदमी ही ले सकता है।” मणीराम भी थोड़ा-थोड़ा झूमने लगा था।
“बग़ैर पैसों के मज़े?”
“अबे पैसे वाले को जाके पूछ, कितना सुख-चैन से होते हैं वो? हर वक़्त चिंता में झुरते हैं! न खाने का वक़्त, न पीने का। हर वक़्त लेन-देन की बातें। सौ झंझट पैसे वाले को।” किसी दार्शनिक की भांति मणीराम बोला, “अपुन को देख, फटेहाल हैं मगर मस्तमलंग। जहाँ दो पैसे हुए नहीं कि हम लोग पहुँच जाते हैं, स्वर्ग का आनंद लेने। न कोई डर, न चिंता-फिकर, सारी ज़मीं हमारी… सारा आसमां हमारा। वो दीवार देख रहे हो… ऊँची दीवार! वहां अमीरों की दुनिया ख़त्म होती है, और वहां से इधर नाले की तरफ़ हमारी ज़िन्दगी और मौजमस्ती की दुनिया शुरू होती है।” मणीराम गालियां बकने लगा, “स्साला, सारी ज़िन्दगी कीड़े का माफिक रेंग-रेंगकर बदबू-कीचड़ में ही मर जायेगा अपुन लोग, मगर अमीरों की उस दीवार के पार झांकना तो दूर, कभी छू भी नहीं पायेगा। स्साला!”
“बरोबर बोलता है मणीराम भाई, बरोबर।” मंगतू ने पूरी थैली गटक ली और मणीराम के हाथ में नमकीन के पैकेट को ऐसे देखने लगा जैसे किसी मीट की दुकान पर कुत्ते मांस काटते हुए कसाई को देखते हैं कि कब वो कुछ फेंके और वे उस पर झपटें।
“अरे मणीराम भाई, ख़ाली पेट लेक्चर ही देते रहोगे या नमकीन का पैकेट भी दोगे! अकेले-अकेले ही चट कर रहे हो!” जब मंगतू ने देखा की मणीराम अकेले ही सब नमकीन उडा जायेगा तो उससे बोले बग़ैर नहीं रहा गया।
“कब से आँखें गड़ाए देख रहा है कम्बख़्त? अभी दो मुट्ठी भी नहीं खा पाया हूँ, और खुद पहले फाके मार-मारके आधा पैकेट चट कर गया था।” दो थैली का नशा था मणीराम की आवाज़ में, “चल क्या याद रखेगा तू भी, किस रईस से पाला पड़ा है!”
मणीराम द्वारा अपनी ओर फेंकी हुई नमकीन की थैली पर मंगतू ऐसे झपटा, जैसे जूठे पत्तल पर कोई कुत्ता, और बच रही मुट्ठीभर नमकीन को एक साँस में ऐसे चबा डाला, कहीं मणीराम दुबारा न मांग बैठे।
“यार मणीराम, कोई उपाय बताओ, मेरी जोरू बड़ी बक-बक करने लगी है।” नमकीन चबाते-चबाते मंगतू बोला।
“अबे दे दिया कर दो लपाड़े खैंच के। मर्द का बच्चा है या किसी हिजड़े की कोख से जन्मा है रे मंगतू! जो जोरू की बक-बक सुनता है!” मणीराम ने कड़क कर कहा, “चल बीड़ी सुलगा।”
मंगतू खी…खी… करके बन्दर की माफिक हंस दिया और बोला, “वाह क्या डायलॉग मारत हो मणीराम भाई, बिल्कुल अमरीशपुरी की आवाज़ लगत है तुम्हार ठाकुरों जैसी!” और बीड़ी सुलगाकर मंगतू ने एक मणीराम को दी दूसरी से स्वयम कश मारने लगा।
“उस्ताद अब एकठो गाना हुई जाई।” मंगतू ने धुआँ उड़ाते हुए कहा।
“गाना सुनेगा ससुर!” कहकर मणीराम ने खंखार के गला साफ़ किया और बीड़ी का एक लम्बा कश खींचने के बाद पंचम सुर लगाके गाने लगा, “का जानू मैं सजनिया SSS… चमकेगी कब चंदनिया SSS… घर में ग़रीब के…”
“उठाई ले घूंघटा SSS…,” अपना चेहरा गमछे से ढकते हुए मंगतू ने गाने की अगली लाइन गाई, “उठाई ले घूंघटा SSS…, उठाई ले घूंघटा चाँद देख ले।”
इसके बाद भी दोनों ने कई फ़िल्मी, ग़ैर-फ़िल्मी गीत गाये। मसलन बिहारी, भोजपुरी और पुरबिया के हिट गीत और लोकगीत भी। साथ ही साथ दोनों ने भांति-भांति के अभिनय भी बनाये, जब तक कि दोनों थककर चूर और बेदम न हो गए।
“अच्छा उस्ताद, एक बात बताओ।” मंगतू ने हाँफते हुए कहा, “तुम्हारा मानना है कि लुगाई को मारपीट के बस में करना चाहिए?”
“बिलकुल, ई मा ग़लत का भया?”
“उस्ताद, अगर ज़्यादा मार-पिटाई से ससुरी जोरू भाग गई तो?” मंगतू ने अपने मन की शंका जतलाई।
“अबे तो घबराता क्यों है, दूसरी आ जाएगी? हमीं को देख ले, पहली दोनों लुगाइयाँ मार-पिटाई के चलते ही भागी थीं, और ये तीसरी झबरी भी मार खा-खाके… खा-खाके सीधी हो गई है।” कहते-कहते एक पल को मणीराम सिहर उठा और उसके रौएं खड़े हो गए। झबरी का चेहरा याद आते ही उसे कानों में गालियों का कर्कश शोर-सा सुनाई देने लगा।
“तो मणी भइया प्यार का करत हो झबरी भाभी का?” कहकर मंगतू ने डकार ली।
“अरे प्यार भी करते हैं ससुरी को, स्साली भैंण की… बड़ी तेज़-तर्रार औरत है। काटने को आती है दिनभर और… रात होते ही… रात होते ही पैरों पर रपट जाती है।”
“ई बात का क्या सबूत, तुम झबरी भाभी का प्यार भी करत हो?” मंगतू फिर डकारा।
“अबे तीन पैदा कर चुका हूँ, और चौथा पेट में है ससुरी के। तोका प्यार का और कोनो सार्टिफिकेट चाहिए रे मंगतू!” मणीराम तैश में आकर बोला।
“बच्चे तो बलात्कारी भी पैदा करत हैं!” मंगतू का पारा भी सातवें आसमान पर चढ़ गया।
“अबे क्या बक रहा है बे?” मणीराम ने आँखें दिखाई।
“देख मणी, बहुत देर से तेरी चपड़-चपड़ सुन रहा हूँ।” मंगतू ने भी अपनी मूछों को ताव दे डाला।
“स्साले तो गुस्सा काहे को दिला रहा है?” मणीराम भी फैल गया।
“फिर!” मंगतू उठ खड़ा हुआ।
“एक तो मुफ़्त की पीता है, तिस पर आँखें दिखाता है, ठहर जा…।” कहकर मणीराम मंगतू की तरफ़ लपका।
देखते-देखते कोनों शराबी आपस में गुत्थम-गुत्था हो गए। कौन पिट रहा था या कौन पीट रहा था, इसका होश दोनों को नहीं था। लड़ते-पिटते जब इतनी ताकत भी शेष न रही कि खड़ा हुआ जा सके तब दोनों दोस्त वहीँ आस-पास लुढ़क गए। नशे की अधिकता ने दोनों को शीघ्र सुला दिया था। पास का वातावरण वैसा ही था। नाला पूर्वत बह रहा था। जिस पर सुअरों का झुण्ड अब भी अठखेलियाँ कर रहा था।
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“मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे, मोहे…” गाते हुए मणीराम की बोलती बंद हो गई। घर की ड्योढ़ी पर झबरी को खड़ा देख उसके सुर-बेसुरे हो गए।
“कहाँ मरा हुआ था रातभर से, मिल गई फ़ुरसत घर आने की?” झबरी ने आँखें तरेरी।
“रात दगड़ू के बच्चे की जन्मदिन पार्टी थी।” नशे में लड़खड़ाते मणीराम ने बड़ी चतुराई से सफ़ेद झूठ बोला।
“तो क्या रात को घर न मर सकते थे?” झबरी के स्वर में वही कठोरता थी।
“अरे बांवली, दगड़ू हमारी तरह कंगला थोड़े है। बड़े साहब के यहाँ कोठी में काम करता है। अंग्रेजी शराब की बड़ी-बड़ी बोतलें। मीट-सीट…!” ख़्याली पुलाव बनाते-बनाते वास्तव में मणीराम के मुख से लार टपकने लगी। वह चटकारे लेते हुए बोला, “अपने यहाँ तो एक ज़माना गुज़र गया है मीट बने! क्या मीट था सुअर का ताज़ा-ताज़ा मोटा गोश्त आहा!”
“हम यहाँ रूखी-सूखी को भी तरसे और वहां शराबियों के साथ मीट खाया जाता है! आग न लगी मुई ज़बान को मीट खाते।” झबरी चिढ गई।
“बकवास बंद कर, ज़ायका न बिगाड़!” कल्पना के उसी मिथ्या स्वाद में खोये हुए मणीराम बोला, “क्या मीट था और क्या अंग्रेजी दारू थी? पहली धार की!” उसे झबरी के चिढ़ने पर बड़ा आनंद आ रहा था। उसे मन-ही-मन इस बात की ख़ुशी थी कि उसने झबरी से अपने तिरस्कार का बदला ले लिया। हालाँकि रात को वह मंगतू के साथ थैली पी के वहीँ नाले के किनारे पड़ा हुआ था और मीट की जगह उसने दो मुट्ठी नमकीन ही खायी थी। सुबह नशा टूटने के बाद भी बची हुई थैली मणीराम ने अपने हलक से नीचे उतार ली थी और नशे में झूमता-गाता वह घर पहुंचा था।
“आग लगे मुई शराब को, कमबख़्त मौत भी न आती इन शराबियों को?” झबरी ने सर पीटा। शोर-शराबा सुनकर बच्चे भी उठ गए थे और माँ के पास आ खड़े हुए।
“कभी तो अच्छे वचन बोल लिया कर!” मणीराम ने झुंझलाकर कहा, “सोते-जागते वही बकवास, सारा मज़ा किरकिरा कर दिया!”
“तो गाली खाने वाले काम क्यों करता है तू?”
“तेरे बाप के पैसों की पीता हूँ?”
“आज के बाद लेना किराये-भाड़े के पैसे।”
“ठीक है मैं ड्यूटी नहीं जाऊँगा।”
“खिलाना अपने चीथड़े इन शैतानों को।” कहकर झबरी ने बच्चों को मणीराम की तरफ़ धकेला। बच्चे रोने लगे। शेरनी पुनः दहाड़ी, “मरते भी नहीं मरदूद। कभी ज़हर दे दूंगी इन सपोलों को!” झबरी पैर पटकते हुए बाहर की ओर जाने लगी, “आज बाबूजी का पहला श्राद्ध-कर्म था। अभी कुछ देर में पंडितजी आने वाले हैं और ये शनिचर मांस-मदिरा खा-पीकर आ गया।” बड़बड़ाते हुए झबरी दूसरी तरफ़ चली गई।
“रोओ मत मेरे कलेजे के टुकड़ों। मेरे लाल, मेरे शेरों। हम तुम्हें एक गाना सुनाते हैं।” मणीराम ने खंखार के गला साफ़ किया, “सजनवा बैरी हो गए हमार। चिट्ठिया हो तो हर कोई बांटे। भाग न बांटे कोई… करमवा बैरी हो गये हमार!” दोनों बच्चे रोना भूलकर मणीराम को ऐसे देखने लगे। जैसे वह कोई अजूबा हो!
ठीक इसी समय द्वार पर श्राद्ध-कर्म हेतु पंडितजी आ पहुंचे। मणीराम को नशे की हालत में देखते ही सारी कहानी उनकी समझ में आ गई।
“पंडितजी नमस्कार!” झूमते हुए मणीराम बोला, “आओ-आओ आपका स्वागत है।”
झबरी भी कमरे से बाहर आ गई।
“छी: छी:! राम-राम!! घोर कलयुग आ गया! मणीराम तुम तो पक्के मलेच्छ हो गए हो। कम-से-कम अपने पिता के श्राद्ध-कर्म के दिन तो शराब न पीते! तुमने तो अपना लोक-परलोक दोनों ही बिगाड़ लिया है।” फिर झबरी की तरफ़ देखते हुए पंडितजी कठोर स्वर में बोले, “क्या हमारा अपमान करने के लिए बुलाया गया था झबरी देवी?”
“नहीं पंडितजी! भगवान क़सम, मुझे ख़ुद ऐसी उम्मीद नहीं थी कि ये कल के गए, आज सुबह इस हाल में लौटेंगे शराब पिए!” झबरी बिलख पड़ी।
“शराब नहीं मीट भी खाया है पंडितजी, सुअर का मोटा-मोटा गोश्त।” मणीराम ने उंगली चाटकर चटकारे लेते हुए कहा।
‘ऊ SSS… आ SSS…’ सुनकर ही पंडित जी को उल्टी आ गई, “इस घर में तो एक पल ठहरना भी धर्म का घोर अपमान है।”
“ओय पंडित के बच्चे, उल्टी क्या तेरा बाप साफ़ करेगा?” मणीराम अकड़कर बोला, “आया बड़ा धर्म का ठेकेदार! हमें मत समझाओ ये सब पाप क्या है? पुण्य क्या है? धर्म के बहाने मरे हुए लोगों की श्राद्ध-तेरहवीं पर डट कर दावत खाते हो, क्या ये पाप नहीं?”
“चमार हो न, इसलिए ऐसा कह रहे हो।” पंडितजी आवेग में बोले, “तुम नीच कुल के लोग सदैव नरक में पड़े सड़ते रहोगे। कभी स्वर्ग न पा सकोगे!”
“ओय पंडित फालतू मत बोल। कौन जाने मारने के बाद क्या होता है? इसलिए नरक का डर हमको न दिखलाओ। चमार बोलता है हमको, ठहर अभी बतलाता हूँ।” कहकर मणीराम पंडितजी को पीटने की गरज से आगे बढ़ा, “रोज़ भगवान का नाम लेता है। आज तुझे भगवान के पास ही भेज दूँ।”
“राम-राम! ब्राह्मण को हाथ दिखाते हो, घोर कलयुग!” कहकर पंडितजी अपनी धोती ऊपर किये वापिस भागने लगे।
“ठहर अभी उतारती हूँ तेरा नशा!” पंडितजी का यह अपमान देख झबरी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। वह पहले से ही मणीराम से कहर खाये बैठी थी। अब तो पर्याप्त बहाना भी था। वह ग़ुसलख़ाने से कपड़े धोने की थापी उठा लाई और पूरी ताकत से मणीराम की धुलाई करने लगी। इस तरह जैसे वह कपड़ों को धो रही हो।
“हाय मइया री! तोड़ दिया पैर डायन ने।” हाथों से कई वार रोकने में मणीराम सफ़ल हुआ था। मगर एक तगड़ा वार जो उसके बाएं पैर को निशाना लेकर लगाया गया था। उसे रोकने में वह असमर्थ था। नतीज़तन वह घुटना पकड़ते हुए मारे दर्द के चिल्लाता हुआ वहीँ ज़मीन पर गिर पड़ा। इस बीच झबरी ने एक-दो प्रहार और किये और थापी वहीँ फेंक दी।
“जीना हराम कर दिया है कंजर ने।” मगर झबरी के ये शब्द सुनने से पहले ही मणीराम बेहोश हो चुका था।
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एक महीने बाद।
“साबजी, राम-राम!” बड़े बाबू के सामने थोड़ा संकुचाते हुए मणीराम बोला।
“आख़िर मिल गई फ़ुर्सत दफ़्तर आने की!” अंगुली से ऐनक सीधे करते हुए बड़े बाबू बोले।
“वो साबजी, पैर में पलस्तर चढ़ा था।” मणीराम ने सफ़ाई पेश की।
“पूरे एक महीने बाद शक्ल दिखा रहे हो मणीराम, कुछ तो शर्म करो।” बड़े बाबू ने बड़े रूख़े स्वर में कहा।
“वो साबजी, मैंने मंगतू से कहलवा भेजा था कि ज़ीने से पैर फिसल कर गिरा तो हड्डी टूट गई थी। डॉक्टर ने पूरे महीने के लिए पलस्तर बंधवा दिया था।” मणीराम ने थोड़ा विश्वास लाकर कहा, “साब जी, दफ़्तर तो दूर की बात है। घर में लैट्रीन-बाथरूम जाने में भी बड़ा दिक्कत होता था।”
“लेकिन मंगतू तो कह रहा था, तुम्हारी घरवाली ने डंडे से पीटा, तब तुम्हारा पैर टूटा!” बड़े बाबू के होंठों पर एक अजीब सी मुस्कान तैर गई।
“नहीं साब, झूठ है ये सब! राम क़सम, ज़ीने से पैर फिसला था।” मणीराम अपनी बात पर अडिग रहा और मन-ही-मन मंगतू को गाली देने लगा, ‘स्साला हरामखोर मंगतू! पेट में बात नहीं पचती कमीने के! आज शाम को ख़बर लूंगा स्साले की।’
“देखो मणीराम, क्या झूठ है? क्या सही? हम कुछ नहीं जानते और न ही जानना चाहते हैं कि तुम्हारा पैर घरवाली के डंडे से टूटा या ज़ीने से गिरकर। हम तो इतना जानते हैं कि कंपनी से तुम्हारा दाना-पानी उठ चुका है।”
“ऐसा मत बोलो साब, हम तबाह हो जायेंगे। मेरे बाल-बच्चे भूखे मर जायेंगे।” मणीराम हाथ जोड़कर मनुहार करने लगा।
“देखो भाई, मैं कुछ नहीं कर सकता। ऊपर से आदेश हैं।”
“नहीं साब!” मणीराम बड़े बाबू के पैरों पर रपट गया, “ऐसा मत करिये।” मणीराम का गला भर आया और आँखों से आंसू निकल आये।
“ये सब मैनेजमेंट का फ़ैसला है। पैर पकड़ने से कोई लाभ नहीं होने वाला!” बड़े बाबू ने अपने पैर पीछे हटाते हुए वाक्य पूरा किया।
“नहीं साब! भगवान के लिए ऐसा मत करो। पेट पर लात मत मारो। मेरे बाल-बच्चों का कुछ तो सोचो!” मणीराम बुरी तरह गिड़गिड़ाया।
“देखो मणीराम, अब कुछ नहीं हो सकता। रोना गिड़गिड़ाना व्यर्थ है। पहले भी तुम कई बार बग़ैर बताये छुट्टियां कर चुके हो। मैनेजमेंट पहले ही तुम्हारी इन हरकतों से परेशान थी। अब तो उनके पास पर्याप्त कारण भी है तुम्हें निकालने का। नशेड़ी, भंगेड़ी और गंजेड़ी को कंपनी अब बर्दाश्त नहीं कर सकती।” बड़े बाबू ने दो टूक शब्दों में कहा।
“नहीं साब, रहम करो।” मणीराम रोने लगा।
“देखो मणीराम, एक-न-एक दिन तो ये होना ही था। एक तो ड्यूटी पर तुम दारू, भांग, चरस, अफ़ीम खाकर आते थे। दूसरे, काम से ज़ियादा गाली-गलौज करते-फिरते थे। तीसरे, जब जी चाहा आये! जब जी चाहा चले गए। चौथे, बग़ैर बताये दो-चार दिन नदारद रहना! आख़िर कोई बर्दाश्त करे तो कब तक?” बड़े बाबू ने मणीराम के सारे कर्मों का लेखा-जोखा कह सुनाया, “आख़िर सब्र की भी एक सीमा होती है या नहीं!”
“साब, मैं सब बुरी आदतें छोड़ दूंगा।” मणीराम पुनः गिड़गिड़ाया।
“सॉरी, मेरे हाथ में कुछ नहीं है। तुम्हारा फैसला हो चुका है।” बड़े बाबू ने कठोर स्वर में कहा, “दिवाली के दो रोज़ बाद कभी भी आकर अपना हिसाब-किताब ले जाना।”
“साब रहम करो!” मणीराम पुनः पैरों में रपटने लगा।
“छोडो मेरा पैर!”
“साब…”
“आई से स्टॉप दिस नॉनसेंस? ख़बरदार, ये सब नौटंकी दफ़्तर से बाहर जाकर करो, गेटआउट। मुझे और भी कई काम करने हैं। तुम्हारी फालतू बकवास सुनने का समय नहीं है मेरे पास।” बड़े बाबू ने गुस्से में भरकर कहा, “जितना प्यार से बोलो सिर पर चढ़ते हैं।”
“अच्छा साब जी, भगवान आप लोगों के बाल-बच्चों को आबाद रखे।” और किसी हारे हुए सिपाही की भांति मुंह लटकाये मणीराम कमरे से बाहर निकल आया।
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“अम्मा-अम्मा, बाहर आइसक्रीम वाला आया है।” गुणीराम बोला।
“चल पीछे हट। पोछा लगाने दे। यहाँ राशन-पानी के लिए पैसे नहीं और लाटसाहब को आइसक्रीम चाहिए।” झबरी ने पोछा लगाते हुए कहा, “बाप महीने भर बाद आज ड्यूटी पर गया है। जब तनख्वाह आएगी। तब खाना आइसक्रीम।”
“नहीं मुझे अभी चाहिए।” गुणीराम ज़िद करने लगा।
“खायेगा एक थप्पड़ सुबह-सवेरे।” झबरी डांटते हुए बोली, “चल भाग यहाँ से।”
“माँ-माँ, मैं भी आईतिरिम थाऊंगा!” तभी मंझला चेतराम भी वहां आ पहुंचा। गुणीराम को आइसक्रीम के लिए रोता देख वह भी अपने तुतले स्वर में माँ से आइसक्रीम मांगने लगा।
“देखो बेटा कल दिवाली है। जी-भर के मिठाई खाना कल दोनों।” झबरी ने प्यार से समझाया। दोनों बच्चे खुश हो गए। उन्हें छह महीने पहले की याद हो आई। जब मामाजी मिठाई लाये थे। बच्चे उसका स्वाद अब तक न भूले थे।
“वैसी मिठाई, जैसी मामाजी लाये थे!” गुणी बोला।
“हाँ बेटा।”
“तो फिर मैं अकेले ही खाऊंगा सारी मिठाई।” गुणीराम चेतराम को ठेंगा दिखाते हुए बोला।
“नहीं मैं थाऊंगा, थाली मिथाई।” तुतलाते हुए चेतराम रोने लगा।
“दोनों भाई खाना।” झबरी ने मुस्कुराकर कहा।
दोनों बच्चे ख़ुशी-ख़ुशी बाहर खेलने चले गए। उनको गए पांच मिनट भी न बीते थे कि मणीराम ने दरवाज़े पर दस्तक दी।
“आज इतनी जल्दी कैसे आ गए?” बरामदे में मणीराम को साइकिल खड़ी करता देख झबरी आश्चर्य से बोली।
मणीराम ख़ामोश था। झबरी को अनदेखा किये वह गंभीर मुद्रा में ही कमरे की तरफ़ बढ़ने लगा।
“मुंह में कीड़े पड़े हैं! बोल क्यों नहीं रहा?” झबरी अपनी इस उपेक्षा पर खिन्न होकर बोली।
“अब ठण्ड पड़ गई तुझे! और कर पिटाई खसम की! अब खा अपनी हड्डियाँ और ज़हर दे दे सपोलों को।” मणीराम तैश में भर उठा। मन किया दो थप्पड़ रसीद कर दे झबरी के मगर खून के घूंट पीकर रह गया।
“हाय राम! क्या हुआ साफ़-साफ़ बोलो!” झबरी का दिल बैठ गया।
“खसम की नौकरी खाकर पूछ रही है साफ़-साफ़ बोल! स्साली और चला हाथ… दूसरी टांग भी तोड़ दे खसम की। टांग क्या, सांसों की डोर भी तोड़ दे। इस नरक से मुझे भी निज़ात मिले। फिर मेरी तेरहवीं पे दूसरा खसम करके जन्नत के मज़े लूटियो।” और भी क्रोधवश न जाने क्या-क्या अनाप-शनाप बोलता रहा मणीराम, लेकिन नौकरी छूट जाने के सदमे के अतिरिक्त झबरी को कुछ और सुनाई नहीं पड़ रहा था। मस्तिष्क भाव-शून्य हो चुका था झबरी का, बस वह मणीराम का चलता हुआ मुंह देख रही थी। उसे गालियाँ बकता हुआ जब मणीराम कमरे में घुस गया तो सदमे की-सी हालत में वह सर पकड़कर वहीँ बैठी विलाप करने लगी।
“देखो जी, दिल छोटा मत करो, कहीं-न-कहीं नौकरी फिर मिल ही जाएगी।” झबरी ने बड़े प्रेम से मणीराम के बालों में हाथ फेरते हुए कहा, “आज दिवाली है और बच्चे कई दिन से इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं कि आज उन्हें खाने को ख़ूब मिठाई मिलेगी और फोड़ने को पटाखे, लेकिन घर के हाल तुमसे छिपे नहीं हैं। फूटी कौड़ी तक नहीं बची है घर में। कल चावल भी पड़ोस से मिल गए थे, तो जाकर खिचड़ी बनी थी। आपको तो कंपनी से हिसाब-किताब अभी दो दिन बाद मिलेगा। कुछ जतन करो। यार-दोस्तों से उधार मांगकर मिठाई और पटाखे ले आओ।” झबरी रो-सी पड़ी, “हम तो अभाव में जी ही रहे हैं पर तीज-त्यौहार पर बच्चों का मन क्यों मारा जाये?”
“कौन देगा उधार मुझको? जिससे भी पैसे लिए। आज तक वापिस नहीं दिए।” मणीराम ने बड़े उदास मन से कहा। कल से ही उसका मूड उखड़ा हुआ था। रात ठीक से सो भी नहीं पाया था मगर झबरी की बात उसके कलेजे को लग गई कि तीज-त्यौहार के मौके पर बच्चों का मन क्यों मारा जाये? वह खाट से उठ खड़ा हुआ, “ला बक्से से मेरी घड़ी निकल दे। अगर कहीं जुगाड़ न हुआ तो घड़ी काम आएगी। तू ठीक कहती है बच्चों का मन क्यों मारा जाये?”
झबरी भीतर चली गई। पास ही बच्चे सोये हुए थे। मणीराम ने स्नेह से उनके सर पर हाथ फेरा। सामने दीवार घड़ी सुबह के साढ़े आठ बजा रही थी। मणीराम अपने आप से ही बातें करने लगा, ‘भला ग़रीब आदमी की भी क्या ज़िन्दगी है? अभावों में ही जीता है! मरता है! मृगतृष्णा की भांति हर वस्तु को पाने की लालसा लिए तरसता है! जैसे कोई पागल उम्रभर अपनी छाया को पकड़ने की चेष्टा करता है। इन अभागों ने भी निर्धनता में जन्म लिया है और जीवनभर ये भी अभावों और मृगतृष्णाओं के महाजाल में भटक-भटक कर अपने प्राण त्याग देंगे। किन्तु विधाता बड़ा निष्ठुर है! वह निर्धनों को रुखा-सूखा, बेस्वाद दीर्घ जीवन प्रदान करता है! आसानी से उनके प्राण हरण नहीं करता ताकि निर्धनता के नरक में पल-पल सड़ता-गलता रहे आदमी।’ इन्हीं सब विचारों में मणीराम देर तक डूबा रहा।
“कहाँ खो गए जी?” मणीराम को लगभग झिंझोड़ते हुए झबरी ने कहा, “क्या ख़्वाब में मिठाई खा रहे थे?”
“मिठाई तो दूर की बात है। ग़रीब आदमी तो सपने में भी रूखी-सूखी तक पेटभर नहीं खा सकता!” मणीराम ने किसी विचारक की भांति कहा।
“क्या बात है जी, तबियत तो ठीक है तुम्हारी?” झबरी ने मणीराम के सर पर हाथ फेरते हुए कहा।
“भयानक रोग भी अभावों के नरकवास से ग़रीब को मुक्ति नहीं दिल सकते!” एक अजीब-सी हंसी हँसते हुए मणीराम बोला।
“देखो जी, आप ज़्यादा चिंता मत करो। ऐसी हालत में, मैं आपको बाहर नहीं जाने दूंगी।” झबरी ने घबराकर कहा। वह कल से ही मणीराम को देखकर चिंतित थी। कहीं परेशानी के आलम में मणीराम ने कुछ उल्टा-सीधा निर्णय ले लिया, तो वह कहाँ जाएगी? निकम्मा ही सही आख़िर जैसा भी है, मणीराम उसका पति है। उसका सहारा है। वह मणीराम की अजीबो-ग़रीब बातों का कभी कुछ अर्थ लगाती, तो कभी कुछ और, “सुनो जी, आप घर पर ही आराम करो। मैं ही अड़ोस-पड़ोस से मांग-मूंगकर मिठाई-पटाखों का प्रबन्ध कर लूँगी।”
“अरी पगली, मुझे कुछ नहीं हुआ है।” झबरी की निर्मूल शंका का समाधान कहते हुए मणीराम बोला, “ख़ाली दिमाग़ शैतान का घर होता है। इसलिए इधर-उधर की कुछ बातें अपने आप ही दिमाग़ में आ गई थी। तू क्या समझती है? मैं इन मामूली दुखों से घबराकर ख़ुदकुशी कर लूंगा। अरे पगली मैं आख़िरी साँस तक जीने में विश्वास रखता हूँ। ला घड़ी दे मैं चलता हूँ। देखूं कहीं जुगाड़-पानी हो जाये।”
“देखो जी, इंतज़ाम हो या न हो, आप जल्दी घर आ जाना। हमें चिन्ता लगी रहेगी।” मणीराम जब दरवाज़े के क़रीब पहुँच गया, तो झबरी ने पीछे से कह।
“बेफ़िक्र रह पगली, मैं गया और आया। मेरे बच्चे आज दिवाली के दिन भी मिठाई को तरसें! यह मुझसे बर्दाश्त नहीं होगा। मैं मिठाई-पटाखों का इंतज़ाम करके ही लौटूंगा।” इतना कहकर मणीराम बाहर चला दिया। झबरी भी द्वार पर आ खड़ी हुई और गली की तरफ़ तब तक देखती रही, जब तक कि मणीराम दृष्टि से ओझल न हो गया। भीतर बच्चे पूर्ववत सो रहे थे। निसफ़िक़्र, दीन-दुनिया की झंझटों से बेख़बर, आज़ाद।
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संध्या हो चली है। रंग-बिरंगी लाइटें जल उठी हैं। जिस कारण बाज़ार का सौंदर्य और भी निखर गया है। कोई आतिशबाज़ियाँ ख़रीद रहा है, तो कोई खील-बताशे, खिलौने, फल, मिठाइयां आदि। सभी अपने आप में मग्न हैं। राह चलते किसी का कोई परिचित चेहरा जान पड़ता, तो दोनों एक-दूसरे को शुभकामनायें देते हुए कहते, “दिवाली मुबारक़ हो।” जवाब में “आपको भी।” सुनाई पड़ता। कुल मिलाके निष्कर्ष ये कि दीपावली के कारण आज वातावरण में चहुँ ओर उत्साह-उमंग और हर्षोल्लास छाया हुआ है।
किन्तु इसी बाज़ार में खुशियों की भीड़ से अलग एक उदास-हताश और निराश चेहरा भी था। सुबह से वह इसी फ़िक्र में घुल रहा था कि वह भी अपने बच्चों के लिए मिठाई और आतिशबाज़ियां ख़रीदे। यार-दोस्तों के जितने भी परिचित चेहरे थे। वह सबकी चौखट पर गया, मगर उसका पुराना रिकार्ड देखकर, किसी ने उसकी सहायता न की। आख़िरकार उसने मन में एक दृढ निश्चय किया और सामने हलवाई की दुकान पे जा पहुंचा। वह कोई और नहीं अपना ही अभागा मणीराम था। जो सुबह से ही मारा-मारा फिर रहा था।
“लालाजी मुझे मिठाई चाहिए थी?” दुकान पर पहुँचते ही मणीराम ने संकोच के साथ कहा।
“कितने किलो चाहिए?”
“वो लालाजी बात ऐसी है कि…”
“कहो क्या बात है?”
“लालाजी मेरा पर्स न जाने कहाँ गिर गया है। सारे पैसे उसी में थे।”
“अबे चल रास्ता नाप। यहाँ ख़ैरात नहीं बंट रही है।”
“लालाजी उधार थोड़े ही मांग रहा हूँ।”
“फिर?” प्रश्नवाचक दृष्टि से लाला ने मणीराम को घूरा।
“लालाजी मेरे पास घड़ी है।” कहकर मणीराम ने कलाई से घड़ी खोलकर लालाजी की तरफ़ बढ़ा दी।
“अबे चोरी की तो न है?”
“ईश्वर की शपथ… मेरी है।”
“लेकिन ये तो बहुत पुरानी है।” लाला ने घड़ी को उलट-पुलट कर टटोला।
“लालाजी कुछ तो दे दो इसके बदले।” मणीराम ने हाथ जोड़कर गुहार की।
“मैं क्या घड़ियों की दुकान लगाऊंगा?” लाला अकड़ा।
“लालाजी मेरे बच्चे बड़ी उम्मीद लगाए मेरी राह तकते होंगे। सुबह का निकल हूँ। शाम ढलने वाली है।” और मणीराम ने अपनी सारी राम-कहानी लाला को कह सुनाई। हलवाई का दिल पिघल गया।
“बड़े बेदर्द हैं तुम्हारी कंपनी वाले। ऐन त्यौहार के मौके पर तुम्हें निकाल दिया। ख़ैर मैं तुम्हें एक किलो मिठाई दिए देता हूँ।” लाला ने दया दिखाते हुए कहा।
“लालाजी ऐसा कीजिये आधा किलो मिठाई और पचास रुपये दे दीजिये ताकि मैं बच्चों के लिए पटाखे भी ख़रीद सकूँ।” मणीराम ने हाथ जोड़कर कहा, “मेरे बाल-बच्चे तुम्हें दुआएँ देंगे।”
लाला ने ऐसा ही किया और मणीराम लाख-लाख दुआएं देता हुआ शीघ्र-अति-शीघ्र घर की तरफ़ बढ़ने लगा। उसके हाथ जैसे कोई गड़ा हुआ खज़ाना लग गया था। घर लौटने की ऐसी ख़ुशी, शायद उसने बरसों बाद महसूस की थी।
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“मम्मी, पापा कब आएंगे?” गुणीराम ने खेलते हुए झबरी से पूछा। झबरी बच्चों सहित द्वार पर बैठी पति के आने की प्रतीक्षा कर रही थी। गोदी में सबसे छोटा धनीराम बैठा था। चेतराम माँ की पीठ पर चढ़कर झूला झूलने की कोशिश कर रहा था, जबकि सबसे बड़ा गुणीराम झबरी की तरह काफ़ी बेताबी से पिता के आने की राह तक रहा था।
‘कहीं पुरानी आदत के चलते दारू पीने न निकल गए हों?’ अगर ऐसा हुआ तो, मैं उन्हें कभी माफ़ न करुँगी। हमेशा के लिए मायके चली जाऊंगी।’ इंतज़ार करते-करते झबरी के मन में कई विचार उठने लगे। पिछले एक-डेढ़ घण्टे से द्वार पर मणीराम का इंतज़ार करते-करते उसे अब उकताहट-सी होने लगी थी। वह अपने आपको कोस रही थी कि बेकार ही वह अपने शराबी पति की बातों में रही। अब तक वह कहीं-न-कहीं अड़ोस-पड़ोस से मांग-मूंगकर मिठाई-पटाखों का इंतज़ाम कर लेती। वह उठकर भीतर चलने को ही थी कि गुणीराम के चिल्लाने के स्वर ने उसके क़दमों को रोक दिया।
“माँ-माँ, पापा आ गये।” उत्साह में भरकर गुणीराम बोला, “मिठाई-पटाखे भी लाये हैं।” और गुणीराम पिता की तरफ़ दौड़ पड़ा। पीछे-पीछे छोटा चेतराम भी इस तरह से भागा कहीं गुणी सारी मिठाई न खा जाये? साथ-ही-साथ वह भी ख़ुशी का इज़हार करते जा रहा था, “पापा मिथाई लाये!”
पति को अपनी उम्मीदों पे खरा उतरते देख झबरी ने बड़ी राहत की साँस ली। मणीराम घुटनों के बल बैठ गया और उसने दोनों बच्चों को गले से लगा लिया। गुणीराम मिठाई और पटाखों का थैला लेकर घर की और लपका तो झबरी ने उसके हाथ से थैला छीन लिया, “मिठाई और पटाखे, पूजा के बाद। चलिए, पहले आप नहा लीजिये। मैंने ग़ुसलख़ाने में बाल्टी भरकर रखी है।”
“जो हुकुम सरकार!” मणीराम ने झबरी को सलाम किया। सब घर के भीतर प्रविष्ट हो गए।
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पूजा-पाठ चल रहा है। मणीराम के पीछे-पीछे झबरी भी आरती की पंक्तियाँ दोहरा रही थी, ‘ओउम जय जगदीश हरे।’ बच्चों का ध्यान पूजा-पाठ के बजाए, मिठाई के डिब्बे की तरफ़ अधिक था। वे मासूम सोच रहे थे कि कब ये सब नाटक ख़त्म हो तो मिठाई खाने को मिले। वो मिठाई जिसे खाये एक ज़माना गुज़र गया था। पूजा-पाठ ख़त्म होने के बाद झबरी देवी ने अभी मिठाई का डिब्बा खोला ही था कि दरवाज़े पर मंगतू पहुँच गया।
“क्या बात है अकेले-अकेले ही मिठाई खाई जा रही है मणीराम भाई।” मंगतू ने घर की ड्योढ़ी से ही मिठाई का डिब्बा देखते हुए कहा।
“आओ-आओ मंगतू भाई, बड़े मौक़े से आये। लो तुम भी खाओ मिठाई।” मणीराम ने मंगतू को भीतर आने का निमन्त्रण देते हुए कहा।
“अरे एक हम ही नहीं, पूरी चण्डाल-चौकड़ी आई है तुम्हें दारू और ताश का न्यौता देने।” कहते हुए मंगतू भीतर प्रवेश कर गया। उसके पीछे-पीछे आठ-दस जने और आ पहुंचे। जिसमे सुखिया, घीसू, दगड़ू और न जाने कौन-कौन से परिचित-अपरिचित चेहरे थे।
दीपावली की शुभकामनाओं, दुआ-सलाम आदि की औपचारिकताओं के उपरान्त चण्डाल-चौकड़ी वहीँ जम गई। बेचारी झबरी मारे शर्म के मिठाई का डिब्बा लिए रसोई में जाने को थी कि दगड़ू ने डिब्बा पकड़ लिया।
“अरे भाभीजी, डिब्बा कहाँ लिए जा रहे हो?”
“मैं प्लेट में रखकर लाती हूँ।”
“अरे क्यों तकलीफ़ कर रही हो, भाभी जी। इस डिब्बे से ही मिठाई उठा लेंगे।” कहते हुए दगड़ू ने डिब्बा अपने क़ब्ज़े में कर लिया।
बच्चे भी शरमाये हुए से माँ के पीछे-पीछे पल्लू थामे रसोई में चले गए। मणीराम चाहकर भी कुछ न बोल पाया। उसे इन निठल्ले दोस्तन पर बड़ा क्रोध आ रहा था। देखते-ही-देखते डिब्बा खुल गया और मिठाई को लेकर कुछ मारा-मारी और दो मिनट में डिब्बा साफ़। दगडू ने बर्फ़ी का एक टुकड़ा मणीराम को भी दिया था मगर उसे वह हलक से नीचे न उतार सका। बच्चे द्वार की ओंट से इन सब शैतानों को अपने हिस्से की मिठाई पर डाका डालते हुए टुकुर-टुकुर देख रहे थे। मणीराम ने ये सोचकर की चलो बच्चे कम-से-कम एक टुकड़ा बर्फ़ी का तो खा ही सकते हैं। मणीराम ने बर्फ़ी का टुकड़ा दिखाकर बच्चों को कमरे में आने का इशारा किया।
“अरे हम क्या बच्चों से कम हैं मणीराम भाई।” कहकर मंगतू ने मणीराम के हाथों से बर्फ़ी का वो आख़िरी टुकड़ा भी छीन लिया, “क्या करूँ, दिल ही नहीं भरा! बड़ी अच्छी मिठाई है!”
“आज घीसू के यहाँ रातभर विलायती दारू पीने और ताश खेलने का अच्छा-खासा इंतज़ाम हुआ है। फिर तुम्हारे बिना तो हमारी कोई महफ़िल जमती ही नही मणीराम भाई। इसलिए ख़ास तुम्हें लेने आये हैं। हम सब वहीँ जा रहे हैं। क्या पता लक्ष्मी जी आज तुम पर मेहरबान हो जाएँ?” दगड़ू ने बड़े ही दोस्ताना अंदाज़ में कहा।
मणीराम की इच्छा तो नहीं थी, मगर घर में बच्चे मिठाई के लिए परेशान करेंगे ये सोचकर मणीराम भी उनके साथ हो लिया। चण्डाल-चौकड़ी के उठ जाने से कमरा पहले की भांति सुनसान हो गया। पूजा के स्थान पर ‘दिया’ पूर्ववत जल रहा था। फोटो में श्रीराम, सीता-लक्ष्मण सहित मुस्कुरा रहे थे। सामने फ़र्श पर पड़ा हुआ मिठाई का डिब्बा अपने लूटने की कहानी अपने-आप बयान कर रहा था। जिस पर दौड़कर गुणीराम ने क़ब्ज़ा कर लिया था। नन्हा चेतराम उससे खाली डिब्बा छीनने का असफल प्रयास करने लगा। सफलता हाथ न लगने पर वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा।
इस बीच झबरी भी कक्ष में आ चुकी थी। मिठाई के लिए बच्चों को तरसता देख उसका भी मन उखड गया था। वह एक कोने पर खड़ी अपने भाग्य को कोसने लगी।
“माँ-माँ,” मंझले चेतराम ने माँ का पल्लू खींचते हुए अपने तुतले स्वर में कहा, “वो देखो फइया अतेले-अतेले मिथाई थाला है। मुदे भी मिथाई दो न।” रोते-रोते चेतराम ने बार-बार यही शब्द दोहराये।
झबरी के लिए ये सब सुन पाना लगभग असहनीय-सा हो गया। बच्चे के कोमल मासूम शब्द उसके हृदय को भेद रहे थे। मस्तिष्क भावशून्य हो चुका था उसका, “हरामजादे,” कहकर झबरी ने एक थप्पड़ उस अबोध बालक को जमाया। वह छिटक कर दो हाथ दूर जा गिरा, “अगर मिठाई ही खानी थी तो किसी सेठ-साहूकार के घर जन्म लिया होता! यहाँ क्या मेरी हड्डियाँ खायेगा? चुपचाप खिचड़ी खाके सो जा, नहीं है कोई मिठाई-विठाई।”
वह मासूम रो देना चाहता था कि अपनी माता के इन आक्रोश भरे तीखे शब्दों को सुनकर उसने आंसुओं को बह जाने से रोक लिया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर उसका क़सूर क्या है? दिवाली पर सभी तो मिठाई खाते हैं।
बस, चुपचाप सिसकते हुए, वह निहार रहा था, अपने बड़े भाई गुणीराम को। जो मिठाई के ख़ाली डिब्बे को खुरचने में व्यस्त था
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