अरुण छन्द
अरुण छन्द
212, 212, 212 212
प्रेम के, राह मे, कर गयी राधिका
पैर ब्रज, भूमि में, धर गयी राधिका
लोक का, हर जहर, पी गयी राधिका
जिंदगी, इस तरह, जी गयी राधिका
व्याधियों, आंधियों, से हिलूँगा नही
जान लो, हर किसी, से झिलूँगा नही
रंच भर, लक्ष्य से, भी टलूँगा नही
बर्फ सा, किन्तु तिल, तिल गलूँगा नहीं
अभिनव मिश्र”अदम्य”