अम्मा जी
सूप फटकते समय
ऑंचल का कोना सॅंभालती-सी
अपने में मगन, कुछ गुनगुनाती-सी
पसीने की बूंदों से
अनुभव सॅंवारती-सी
तन्मयता से गेहूं के
एक एक दाने को पुचकारती-सी
अम्मा!
बन जाती थीं प्रेरणा
अनेक संबंधों की..
जब हुलस कर दुलार लेती थीं
सरसों की लहलहाती बालियों को
तो तृप्त हो जाता था सरसों का हर दाना
गा पड़ती थीं रचे भाव से सावन में वो कजरी
अक्सर रंग जमा देती थी उनके कर्मठ हाथों की मेंहदी
तत्परता से चमका देती थीं
पीपे का हर कोना
नहीं भूलती थीं गमलों में वो तुलसी भी बोना
बिना थके भर देती थीं
घर का ऑंगन हरे नमक की सुगंध से
अनगिन रिश्ते जुड़ जाते थे
कलछी-कढ़ाई , पीढ़ा-बेलन के छंद से
मनुहारती-संभालती बैठा लेती थीं
गृहस्थी के हर रूप से तारतम्य
जुटी रहती थीं बढ़ाने में हौसला
करती जाती थीं हम सबका पथ सुगम
स्वाभिमान की रक्षक, शालीनता की मूर्ति थीं
अम्मा परिवार की बढ़ाती यश कीर्ति थीं
गोबर से लीपे उस सकारात्मक घर की
आत्मा थीं अम्मा!
इंसानियत की ज्योति
रिश्तों का जप-तप और साधना थीं अम्मा!
रश्मि लहर