“अमृत महोत्सव”
हिमालय तेरे शीश को,
कोई झुका रहा है,
बीच में एक रेखा,
और बना रहा है।
वहीं तो है जो तेरे,
नूर को घटा रहा है,
आंखें तुझे बार-बार,
क्यों दिखा रहा है?
तू शीश मुकुट भारत का,
गौरव बढ़ा रहा है,
तुझे नष्ट कर देने का,
षड्यंत्र रचा जा रहा है।
किसी के बाजुओं में,
इतनी ताक़त कब रहा है।
रोक सके कदम तुम्हारे,
खुद पड़ोसी बता रहा है।
तेरे मस्तिष्क पर “तिरंगा” शान से,
आज लहरा रहा है,
देख ले शौक से हिंदुस्तान”
अमृत महोत्सव” मना रहा है।।
वर्षा (एक काव्य संग्रह)/ युवराज राकेश चौरसिया
मोबाइल-9120639958