“अमृत महोत्सव”
हम आंखों से कुछ देख नहीं पा रहे हैं,
मेरे इन आंखों में खून कहां से आ रहे हैं।
हिमालय तेरे शीश को कोई झुका रहा है,
बीच में एक रेखा और बना रहा है।
कोई तो है जो तेरे नूर को घटा रहा है,
आंखें तुझे बार-बार क्यों दिखा रहा है?
अपने ही कलेजे के सौ टुकड़े कर रहे हैं,
लहू से सीच कर मिट्टी को दूषित कर रहे हैं।
हम्हीं हैं जो नफ़रत के बीज बो रहे हैं,
खुद ही, फक्र से ज़हर भी काट रहे हैं।
हम तो शराफ़त से अपना हक मांग रहे हैं,
पीओके भी हमारा है ये संदेश तुझे पहुंचा रहे हैं।
गद्दारों के नमक हरामी पर, हम तरस खा रहे हैं,
आखिर मुझे आज-कल नींद क्यों नहीं आ रहे हैं।
तेरे मस्तिष्क पर “तिरंगा” शान से लहरा रहा है,
आज शान हिंदुस्तान”अमृत महोत्सव” मना रहा है।।
वर्षा (एक काव्य संग्रह)/ युवराज राकेश चौरसिया
मो-9120639958