अमृता
अमृता तुम,अमृत कभी बन ही नहीं पाई,
इस समाज को तुम ज़हर ही लगती रहीं।
अपनी शर्तों पर जीने वाली हर औरत
हर औरत जो मोहब्बत करती है ,चरित्रहीन है।
बेबाक,प्रखर ,और औरतों पर लिखने वाली।
बंटवारे के दर्द को लिखने वाली,नरम दिल कवयित्री
पुरुष प्रधान समाज को आईना दिखाती क़लम
ताउम्र वफ़ा निभाई उसने, साहिर के इश्क में
सुलगती रही ,सिगरेट के जूठे टुकड़े की तरह।
लेकिन आज तू बहुतों की महबूब शायरा है
लोग नहीं चाहते उन के घर अमृता पैदा हो।……..
एक जूठी सिगरेट!!!!!!!
सुरिंदर कौर