अमरत्व
चिरायु बनने की चाह
एक जीव की अभिलाषा,
पर जीवन व मृत्यु
के बीच झूलती प्रत्याशा।
एक सिक्के के दो पहलू
सनातन से रहे दोनों ही है,
निरापद एक के बिना
दूसरे का अस्तित्व कहाँ है।
सफल जीवन की चाह में
हम मृत्यु से भागते रहे,
सर्वभौमिक सत्य से दूर
मृगतृष्णा को तलाशते रहे।
एक जीव का जन्म लेना
संदेहात्मक भले हो सकता है,
पर आ गये संसार मे जो
जाना अवश्य ही पड़ता है।
मृत्यु अटल एक सत्य है
कब इंकार हो सकता है,
पर औचित्यपूर्ण मृत्यु भी
हमारा लक्ष्य हो सकता है।
मृत्यु से निरापद हमसभी
सदा ही डरते रहे है,
अमरत्व की चाह लिए
उससे किनारा करते रहे है।
जबकि पता है सबको
कि अंत मे वही साथ देती है,
अशक्त अवसादित तन को
रोगमुक्त कर मुक्ति देती है।
जीवन तो पूरी बेदर्दी से
जीव को बस ठगता रहा,
निर्मेष प्रेम के मरुस्थल में
आजीवन मृगमरीचिका रहा।
निर्मेष